पूनम चतुर्वेदी, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
भारत की न्यायपालिका इस समय उस ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ी है जहाँ ‘न्याय में विलंब’ स्वयं न्याय के इनकार का रूप ले चुका है। देश की अदालतों में लाखों नहीं, करोड़ों की संख्या में मुकदमे वर्षों से लंबित हैं, जिनमें से कुछ पीढ़ियों से न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (National Judicial Data Grid - NJDG) के अनुसार, देश की निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक में लगभग 5 करोड़ से अधिक मुकदमे अब भी लंबित हैं। यह आंकड़ा केवल एक प्रशासनिक या न्यायिक चुनौती नहीं है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र, हमारे नागरिक अधिकारों और हमारे संविधान में निहित न्याय की अवधारणा पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न है।
इस गहरे संकट के समाधान की खोज में हाल के वर्षों में तकनीक आधारित न्यायिक सुधारों की ओर बड़ी उम्मीदों से देखा जा रहा है। डिजिटल फाइलिंग (e-filing), वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग आधारित सुनवाई, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (Artificial Intelligence - AI) आधारित निर्णय विश्लेषण, वर्चुअल कोर्ट्स (Virtual Courts), न्यायालयों का डिजिटलीकरण औरऑनलाइन विवाद समाधान (Online Dispute Resolution - ODR) जैसे अनेक प्रयास प्रारंभ किए गए हैं। सवाल यह है कि क्या ये तकनीकी उपाय इस ‘न्यायिक भीड़’ को वास्तव में हल करने में सक्षम हैं, या ये भी हमारे मौजूदा न्याय तंत्र की तरह केवल प्रतीकात्मक परिवर्तन बनकर रह जाएंगे?
तकनीक, यदि सही दिशा और नीति के साथ अपनाई जाए, तो यह न्यायिक प्रक्रिया की गति और पारदर्शिता में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है। कोविड-19 महामारी के दौरान जब पूरी दुनिया बंद थी, तब भारत की अदालतें वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से न्याय का वितरण करती रहीं। यह भारतीय न्यायपालिका की तकनीक अपनाने की क्षमता और तत्परता का प्रमाण था। लेकिन यह अनुभव यह भी दर्शाता है कि तकनीक का केवल प्रयोग ही पर्याप्त नहीं, बल्कि उसके समावेश की व्यापक रणनीति और हर स्तर पर प्रशिक्षण की आवश्यकता है। खासकर निचली अदालतों में, जहाँ सबसे अधिक मुकदमे लंबित हैं, वहाँ तकनीकी संसाधनों की भारी कमी है।
डिजिटल न्याय की अवधारणा को लेकर जागरूकता और विश्वास की कमी एक गंभीर समस्या है। ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में रहने वाले litigants (मुकदमा करने वाले पक्ष) आज भी वकीलों पर पूरी तरह निर्भर हैं और उनके पास डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करने की न तो तकनीकी समझ है और न ही संसाधन। जब तक डिजिटल न्याय प्रणाली आम आदमी के लिए सहज, सुलभ और पारदर्शी नहीं होगी, तब तक तकनीक केवल उच्च न्यायालयों और महानगरों तक सीमित होकर रह जाएगी।
आज अदालतों में एक-एक मामले के सैकड़ों पृष्ठों की फाइलें होती हैं, जिनका अध्ययन करने में महीनों लग जाते हैं। यदि इन्हें डिजिटल रूप में संरक्षित कर, AI की सहायता से सारांश, साक्ष्य विश्लेषण और कानून सम्मत सुझाव प्रदान किए जाएँ, तो न्यायाधीशों का समय बचेगा और निर्णय प्रक्रिया अधिक प्रभावी हो सकती है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में ‘SUPACE’ (Supreme Court Portal for Assistance in Court Efficiency) नामक एक AI सिस्टम की शुरुआत की, जो जजों को केस से जुड़ी अहम जानकारियाँ तत्काल उपलब्ध कराता है। यह पहल सराहनीय है, लेकिन इसे देशभर की अदालतों में लागू करने के लिए एक सशक्त और समन्वित नीति की आवश्यकता है। यह भी आवश्यक है कि तकनीकी समाधानों के साथ-साथ मानव संसाधनों की भी भरपूर आपूर्ति हो। न्यायपालिका में आज भी हजारों की संख्या में न्यायाधीशों के पद रिक्त हैं। तकनीक इन न्यायाधीशों का बोझ हल्का कर सकती है, लेकिन न्याय देने का अंतिम निर्णय तो मनुष्य को ही करना होगा। तकनीक एक साधन है, समाधान नहीं।
भारत में न्यायिक प्रणाली का एक विकट संकट यह भी है कि एक मुकदमे की सुनवाई में लगने वाला समय नागरिकों के जीवन को प्रभावित करने लगता है। न्याय में देरी का सबसे पहला प्रभाव आम आदमी की मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। कई बार तो वर्षों की प्रतीक्षा के बाद न्याय मिलने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता क्योंकि तब तक या तो पक्षकार ही नहीं रहते या फिर परिस्थितियाँ बदल चुकी होती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में, तकनीक न केवल न्याय को तेज़ बना सकती है, बल्कि उसके मानवोचित पहलू—सहानुभूति, संवेदनशीलता और समावेशिता—को भी प्रभावशाली बना सकती है।
ई-कोर्ट परियोजना (e-Courts Project), जो कि भारत सरकार और न्यायपालिका द्वारा मिलकर चलाई जा रही है, एक महत्त्वपूर्ण तकनीकी पहल है। इस परियोजना का उद्देश्य अदालतों को पूरी तरह डिजिटल बनाना है ताकि मुकदमा दायर करने से लेकर फैसले की प्रति तक, सब कुछ ऑनलाइन किया जा सके। वर्तमान में देश के लाखों न्यायालयों की केस हिस्ट्री, आगामी तिथियाँ, आदेश और निर्णय ई-कोर्ट पोर्टल पर उपलब्ध हैं। लेकिन इसका वास्तविक लाभ तभी मिलेगा जब वकीलों और आम नागरिकों को इसका समुचित प्रशिक्षण और जागरूकता दी जाए। केवल सॉफ्टवेयर बना देने भर से बदलाव नहीं आता, उसमें सहभागी बनने की क्षमता पैदा करनी होती है।
ऑनलाइन विवाद समाधान (Online Dispute Resolution - ODR) एक अन्य तकनीकी उपकरण है जो विशेष रूप से व्यापारिक विवादों, छोटे झगड़ों औरपारिवारिक मामलों के त्वरित समाधान के लिए बेहद उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसके माध्यम से दोनों पक्ष ऑनलाइन संवाद करके या मध्यस्थ (mediator) की मदद से समझौता कर सकते हैं। इससे न केवल अदालतों का बोझ कम होगा, बल्कि समय, धन और संसाधनों की भी बचत होगी। हाल ही में नीति आयोग और कई तकनीकी स्टार्टअप्स ने ODR को बढ़ावा देने की दिशा में प्रयास तेज किए हैं। परंतु इसके व्यापक उपयोग हेतु कानून में आवश्यक संशोधन, न्यायिक स्वीकृति और विश्वास का वातावरण भी बनाना आवश्यक है।
वर्चुअल कोर्ट्स (Virtual Courts) का प्रयोग भी एक आशाजनक कदम है। दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल जैसे राज्यों में ट्रैफिक चालान मामलों, कॉमर्शियल केसों औरकोविड काल के दौरान कई अन्य विवादों को वर्चुअल कोर्ट्स के माध्यम से निपटाया गया। इसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं। एक वर्चुअल कोर्ट में न तो पक्षकार को अदालत जाना होता है और न ही जज को कोर्ट परिसर में बैठना पड़ता है। पूरा न्यायिक संवाद ऑनलाइन माध्यम से होता है, जिसमें आदेश भी इलेक्ट्रॉनिक रूप में मिलता है। इससे समय की बचत होती है और न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता आती है। परंतु यह भी सच है कि ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में इंटरनेट की सीमित पहुंच और डिजिटल साक्षरता की कमी इस व्यवस्था की सबसे बड़ी बाधा है।
तकनीक के इस युग में न्यायिक आंकड़ों (judicial data) का विश्लेषण भी एक अत्यंत प्रभावशाली उपकरण हो सकता है। केसों की प्रकृति, लंबित रहने का औसत समय, फैसलों की प्रवृत्ति औरन्यायाधीशों का कार्यभार—इन सभी बातों का डेटा विश्लेषण नीति निर्धारण में मददगार हो सकता है। यदि तकनीक की मदद से अदालतों की दक्षता को मापा जाए और उस आधार पर संसाधनों का आवंटन किया जाए, तो न्यायिक प्रणाली की संरचनात्मक खामियों को दूर किया जा सकता है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) आधारित न्यायिक सहयोग की बात करें, तो आज ऐसे सॉफ्टवेयर विकसित किए जा रहे हैं जो सैकड़ों फैसलों का विश्लेषण कर यह बता सकते हैं कि किस प्रकार के मामलों में क्या निर्णय होने की संभावना है। इससे वकीलों को तैयारी में मदद मिल सकती है और न्यायाधीशों को भी दिशा मिल सकती है। लेकिन इसका उपयोग केवल सहयोग के लिए होना चाहिए, निर्णय का अधिकार मानव न्यायाधीशों के पास ही रहना चाहिए। अमेरिका और यूरोप में कुछ स्थानों पर AI आधारित sentencing tools (दंड निर्धारण उपकरण) का परीक्षण हो चुका है, परंतु भारत जैसे विविधता पूर्ण देश में इससे संबंधित नैतिक और कानूनी प्रश्नों पर गहराई से विचार करना होगा।
इन सभी प्रयासों को तभी सफलता मिलेगी जब न्यायिक कर्मचारियों और वकीलों को नियमित तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाएगा। आज भी देश के अनेक अदालतों में न्यायाधीश टाइपिंग, ईमेल, या कंप्यूटर संचालन में दक्ष नहीं हैं। जब तक ‘डिजिटल न्यायपालिका’ के लिए मानव संसाधन तैयार नहीं किया जाएगा, तब तक तकनीक का उपयोग सीमित और प्रतीकात्मक बना रहेगा। इसके लिए एक राष्ट्रीय स्तर की न्यायिक डिजिटल प्रशिक्षण नीति आवश्यक है, जिसमें न्यायाधीशों, रजिस्ट्री कर्मियों, स्टाफ और अधिवक्ताओं को प्रशिक्षण दिया जाए।
अंततः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि तकनीक कोई चमत्कार नहीं करती, वह एक सक्षम माध्यम है। तकनीक आधारित समाधान तभी प्रभावी होंगे जब न्यायिक प्रणाली की संरचनात्मक समस्याओं जैसे—रिक्त पदों की भरपाई, न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता, न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि, आधारभूत संरचना का विकास—को साथ-साथ हल किया जाए। डिजिटल परिवर्तन एक साधन है, न कि समाधान का समूचा विकल्प। हमें न्याय की अवधारणा को न केवल तकनीकी रूप से, बल्कि सामाजिक, मानवोचित और संवैधानिक दृष्टि से भी देखना होगा।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में जहाँ न्यायपालिका पर भरोसा ही नागरिकों का अंतिम आश्रय है, वहाँ तकनीक आधारित समाधान को केवल एक “सुधार” की तरह नहीं, बल्कि “सुधार की संस्कृति” के रूप में देखना होगा। जब हर नागरिक डिजिटल न्याय तक समान रूप से पहुँच पाएगा, तभी हम कह सकेंगे कि तकनीक न्यायिक परिवर्तन का असली वाहक बन गई है। न्याय की गंगा तब तक अविरल नहीं बह सकती जब तक उसकी धारा हर घाट तक न पहुँचे—और यह तभी संभव है जब तकनीक का प्रवाह सही दिशा में और समभाव से किया जाए।
भारत की न्यायपालिका इस समय उस ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ी है जहाँ ‘न्याय में विलंब’ स्वयं न्याय के इनकार का रूप ले चुका है। देश की अदालतों में लाखों नहीं, करोड़ों की संख्या में मुकदमे वर्षों से लंबित हैं, जिनमें से कुछ पीढ़ियों से न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (National Judicial Data Grid - NJDG) के अनुसार, देश की निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक में लगभग 5 करोड़ से अधिक मुकदमे अब भी लंबित हैं। यह आंकड़ा केवल एक प्रशासनिक या न्यायिक चुनौती नहीं है, बल्कि यह हमारे लोकतंत्र, हमारे नागरिक अधिकारों और हमारे संविधान में निहित न्याय की अवधारणा पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न है।
इस गहरे संकट के समाधान की खोज में हाल के वर्षों में तकनीक आधारित न्यायिक सुधारों की ओर बड़ी उम्मीदों से देखा जा रहा है। डिजिटल फाइलिंग (e-filing), वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग आधारित सुनवाई, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (Artificial Intelligence - AI) आधारित निर्णय विश्लेषण, वर्चुअल कोर्ट्स (Virtual Courts), न्यायालयों का डिजिटलीकरण औरऑनलाइन विवाद समाधान (Online Dispute Resolution - ODR) जैसे अनेक प्रयास प्रारंभ किए गए हैं। सवाल यह है कि क्या ये तकनीकी उपाय इस ‘न्यायिक भीड़’ को वास्तव में हल करने में सक्षम हैं, या ये भी हमारे मौजूदा न्याय तंत्र की तरह केवल प्रतीकात्मक परिवर्तन बनकर रह जाएंगे?
तकनीक, यदि सही दिशा और नीति के साथ अपनाई जाए, तो यह न्यायिक प्रक्रिया की गति और पारदर्शिता में क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है। कोविड-19 महामारी के दौरान जब पूरी दुनिया बंद थी, तब भारत की अदालतें वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से न्याय का वितरण करती रहीं। यह भारतीय न्यायपालिका की तकनीक अपनाने की क्षमता और तत्परता का प्रमाण था। लेकिन यह अनुभव यह भी दर्शाता है कि तकनीक का केवल प्रयोग ही पर्याप्त नहीं, बल्कि उसके समावेश की व्यापक रणनीति और हर स्तर पर प्रशिक्षण की आवश्यकता है। खासकर निचली अदालतों में, जहाँ सबसे अधिक मुकदमे लंबित हैं, वहाँ तकनीकी संसाधनों की भारी कमी है।
डिजिटल न्याय की अवधारणा को लेकर जागरूकता और विश्वास की कमी एक गंभीर समस्या है। ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में रहने वाले litigants (मुकदमा करने वाले पक्ष) आज भी वकीलों पर पूरी तरह निर्भर हैं और उनके पास डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करने की न तो तकनीकी समझ है और न ही संसाधन। जब तक डिजिटल न्याय प्रणाली आम आदमी के लिए सहज, सुलभ और पारदर्शी नहीं होगी, तब तक तकनीक केवल उच्च न्यायालयों और महानगरों तक सीमित होकर रह जाएगी।
आज अदालतों में एक-एक मामले के सैकड़ों पृष्ठों की फाइलें होती हैं, जिनका अध्ययन करने में महीनों लग जाते हैं। यदि इन्हें डिजिटल रूप में संरक्षित कर, AI की सहायता से सारांश, साक्ष्य विश्लेषण और कानून सम्मत सुझाव प्रदान किए जाएँ, तो न्यायाधीशों का समय बचेगा और निर्णय प्रक्रिया अधिक प्रभावी हो सकती है। भारत के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में ‘SUPACE’ (Supreme Court Portal for Assistance in Court Efficiency) नामक एक AI सिस्टम की शुरुआत की, जो जजों को केस से जुड़ी अहम जानकारियाँ तत्काल उपलब्ध कराता है। यह पहल सराहनीय है, लेकिन इसे देशभर की अदालतों में लागू करने के लिए एक सशक्त और समन्वित नीति की आवश्यकता है। यह भी आवश्यक है कि तकनीकी समाधानों के साथ-साथ मानव संसाधनों की भी भरपूर आपूर्ति हो। न्यायपालिका में आज भी हजारों की संख्या में न्यायाधीशों के पद रिक्त हैं। तकनीक इन न्यायाधीशों का बोझ हल्का कर सकती है, लेकिन न्याय देने का अंतिम निर्णय तो मनुष्य को ही करना होगा। तकनीक एक साधन है, समाधान नहीं।
भारत में न्यायिक प्रणाली का एक विकट संकट यह भी है कि एक मुकदमे की सुनवाई में लगने वाला समय नागरिकों के जीवन को प्रभावित करने लगता है। न्याय में देरी का सबसे पहला प्रभाव आम आदमी की मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर पड़ता है। कई बार तो वर्षों की प्रतीक्षा के बाद न्याय मिलने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता क्योंकि तब तक या तो पक्षकार ही नहीं रहते या फिर परिस्थितियाँ बदल चुकी होती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में, तकनीक न केवल न्याय को तेज़ बना सकती है, बल्कि उसके मानवोचित पहलू—सहानुभूति, संवेदनशीलता और समावेशिता—को भी प्रभावशाली बना सकती है।
ई-कोर्ट परियोजना (e-Courts Project), जो कि भारत सरकार और न्यायपालिका द्वारा मिलकर चलाई जा रही है, एक महत्त्वपूर्ण तकनीकी पहल है। इस परियोजना का उद्देश्य अदालतों को पूरी तरह डिजिटल बनाना है ताकि मुकदमा दायर करने से लेकर फैसले की प्रति तक, सब कुछ ऑनलाइन किया जा सके। वर्तमान में देश के लाखों न्यायालयों की केस हिस्ट्री, आगामी तिथियाँ, आदेश और निर्णय ई-कोर्ट पोर्टल पर उपलब्ध हैं। लेकिन इसका वास्तविक लाभ तभी मिलेगा जब वकीलों और आम नागरिकों को इसका समुचित प्रशिक्षण और जागरूकता दी जाए। केवल सॉफ्टवेयर बना देने भर से बदलाव नहीं आता, उसमें सहभागी बनने की क्षमता पैदा करनी होती है।
ऑनलाइन विवाद समाधान (Online Dispute Resolution - ODR) एक अन्य तकनीकी उपकरण है जो विशेष रूप से व्यापारिक विवादों, छोटे झगड़ों औरपारिवारिक मामलों के त्वरित समाधान के लिए बेहद उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसके माध्यम से दोनों पक्ष ऑनलाइन संवाद करके या मध्यस्थ (mediator) की मदद से समझौता कर सकते हैं। इससे न केवल अदालतों का बोझ कम होगा, बल्कि समय, धन और संसाधनों की भी बचत होगी। हाल ही में नीति आयोग और कई तकनीकी स्टार्टअप्स ने ODR को बढ़ावा देने की दिशा में प्रयास तेज किए हैं। परंतु इसके व्यापक उपयोग हेतु कानून में आवश्यक संशोधन, न्यायिक स्वीकृति और विश्वास का वातावरण भी बनाना आवश्यक है।
वर्चुअल कोर्ट्स (Virtual Courts) का प्रयोग भी एक आशाजनक कदम है। दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल जैसे राज्यों में ट्रैफिक चालान मामलों, कॉमर्शियल केसों औरकोविड काल के दौरान कई अन्य विवादों को वर्चुअल कोर्ट्स के माध्यम से निपटाया गया। इसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं। एक वर्चुअल कोर्ट में न तो पक्षकार को अदालत जाना होता है और न ही जज को कोर्ट परिसर में बैठना पड़ता है। पूरा न्यायिक संवाद ऑनलाइन माध्यम से होता है, जिसमें आदेश भी इलेक्ट्रॉनिक रूप में मिलता है। इससे समय की बचत होती है और न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता आती है। परंतु यह भी सच है कि ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में इंटरनेट की सीमित पहुंच और डिजिटल साक्षरता की कमी इस व्यवस्था की सबसे बड़ी बाधा है।
तकनीक के इस युग में न्यायिक आंकड़ों (judicial data) का विश्लेषण भी एक अत्यंत प्रभावशाली उपकरण हो सकता है। केसों की प्रकृति, लंबित रहने का औसत समय, फैसलों की प्रवृत्ति औरन्यायाधीशों का कार्यभार—इन सभी बातों का डेटा विश्लेषण नीति निर्धारण में मददगार हो सकता है। यदि तकनीक की मदद से अदालतों की दक्षता को मापा जाए और उस आधार पर संसाधनों का आवंटन किया जाए, तो न्यायिक प्रणाली की संरचनात्मक खामियों को दूर किया जा सकता है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) आधारित न्यायिक सहयोग की बात करें, तो आज ऐसे सॉफ्टवेयर विकसित किए जा रहे हैं जो सैकड़ों फैसलों का विश्लेषण कर यह बता सकते हैं कि किस प्रकार के मामलों में क्या निर्णय होने की संभावना है। इससे वकीलों को तैयारी में मदद मिल सकती है और न्यायाधीशों को भी दिशा मिल सकती है। लेकिन इसका उपयोग केवल सहयोग के लिए होना चाहिए, निर्णय का अधिकार मानव न्यायाधीशों के पास ही रहना चाहिए। अमेरिका और यूरोप में कुछ स्थानों पर AI आधारित sentencing tools (दंड निर्धारण उपकरण) का परीक्षण हो चुका है, परंतु भारत जैसे विविधता पूर्ण देश में इससे संबंधित नैतिक और कानूनी प्रश्नों पर गहराई से विचार करना होगा।
इन सभी प्रयासों को तभी सफलता मिलेगी जब न्यायिक कर्मचारियों और वकीलों को नियमित तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाएगा। आज भी देश के अनेक अदालतों में न्यायाधीश टाइपिंग, ईमेल, या कंप्यूटर संचालन में दक्ष नहीं हैं। जब तक ‘डिजिटल न्यायपालिका’ के लिए मानव संसाधन तैयार नहीं किया जाएगा, तब तक तकनीक का उपयोग सीमित और प्रतीकात्मक बना रहेगा। इसके लिए एक राष्ट्रीय स्तर की न्यायिक डिजिटल प्रशिक्षण नीति आवश्यक है, जिसमें न्यायाधीशों, रजिस्ट्री कर्मियों, स्टाफ और अधिवक्ताओं को प्रशिक्षण दिया जाए।
अंततः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि तकनीक कोई चमत्कार नहीं करती, वह एक सक्षम माध्यम है। तकनीक आधारित समाधान तभी प्रभावी होंगे जब न्यायिक प्रणाली की संरचनात्मक समस्याओं जैसे—रिक्त पदों की भरपाई, न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता, न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि, आधारभूत संरचना का विकास—को साथ-साथ हल किया जाए। डिजिटल परिवर्तन एक साधन है, न कि समाधान का समूचा विकल्प। हमें न्याय की अवधारणा को न केवल तकनीकी रूप से, बल्कि सामाजिक, मानवोचित और संवैधानिक दृष्टि से भी देखना होगा।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में जहाँ न्यायपालिका पर भरोसा ही नागरिकों का अंतिम आश्रय है, वहाँ तकनीक आधारित समाधान को केवल एक “सुधार” की तरह नहीं, बल्कि “सुधार की संस्कृति” के रूप में देखना होगा। जब हर नागरिक डिजिटल न्याय तक समान रूप से पहुँच पाएगा, तभी हम कह सकेंगे कि तकनीक न्यायिक परिवर्तन का असली वाहक बन गई है। न्याय की गंगा तब तक अविरल नहीं बह सकती जब तक उसकी धारा हर घाट तक न पहुँचे—और यह तभी संभव है जब तकनीक का प्रवाह सही दिशा में और समभाव से किया जाए।
संस्थापक-निदेशक
अदम्य ग्लोबल फाउंडेशन एवं न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन
आशियाना, लखनऊ, उत्तर प्रदेश