जनभाषाओं के लिए न्याय अब नहीं, तो कभी नहीं

पूनम चतुर्वेदी, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक बहुत बड़ी विडंबना यह रही है कि जिस देश की आत्मा उसकी भाषाओं में बसती है, वहां भाषाओं को मात्र उत्सवों, प्रतियोगिताओं और स्मरण-दिवसों तक सीमित कर दिया गया है। जब हम कहते हैं कि “हिंदी के नाम पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले वरिष्ठ साथियों ने पहले ही एकजुटता दिखाई होती”, तो यह केवल किसी वर्ग पर आरोप नहीं, बल्कि भाषा आंदोलन की उस ऐतिहासिक विफलता की ओर संकेत है जिसने भारतीय भाषाओं को सत्ता की दहलीज तक पहुँचने से रोक दिया। यह बात असहनीय है कि स्वतंत्रता के 77-78 वर्ष बाद भी न्यायालयों में, विश्वविद्यालयों में, संसद और विधानसभा की कार्यवाही में, जनभाषाओं को सिर्फ ‘अनुवाद योग्य वस्तु’ मानकर दरकिनार किया जाता है। क्या यह केवल इसलिए है कि हमारे वरिष्ठ हिंदी सेवी वर्ग ने समय रहते ‘कार्यवाही’ की जगह ‘कविता-पाठ’ को चुन लिया? जनभाषाओं की वास्तविक मुक्ति का मार्ग केवल कार्यक्रमों, भाषणों और प्रदर्शनियों से नहीं, बल्कि जनचेतना के सघन संघर्षों से होकर ही निकलेगा।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को लेकर हमारे समाज के ‘बुद्धिजीवी’ वर्ग की भूमिका अक्सर दोहरी रही है। एक ओर ये लोग मंचों से भाषायी गौरव की बात करते हैं, तो दूसरी ओर अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाकर ‘भविष्य सुरक्षित’ करते हैं। ये वही लोग हैं जो राजभाषा सम्मेलनों में तालियाँ बजाते हैं, हिंदी पखवाड़ा मनाते हैं और सांस्कृतिक विभागों से बजट लेकर कवि-सम्मेलन और यात्राएँ करते हैं; परंतु जब बात न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता की आती है, तो मौन धारण कर लेते हैं। यह मौन केवल नैतिक अपराध नहीं है, यह भारतीय भाषाओं के प्रति एक प्रकार का धोखा है। इस मौन की गूंज आज उस मुकदमेबाज़ किसान की निराश आँखों में सुनाई देती है, जो न्यायालय में अपने पक्ष की बात तक समझ नहीं पाता। यह स्थिति बदल सकती थी, यदि हमारे हिंदीप्रेमी बौद्धिक वर्ग ने समय रहते जनभाषा को केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकार का विषय बनाया होता।
हम इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते कि भाषा केवल साहित्य या अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती — वह सत्ता का उपकरण भी होती है। न्याय व्यवस्था, प्रशासन, शिक्षा और रोज़गार जैसी संस्थाओं में भाषा के माध्यम से ही सहभागिता और वंचना तय होती है। जिस समाज में न्याय अंग्रेज़ी में होता हो, शिक्षा भी अंग्रेज़ी की अनिवार्यता पर आधारित हो और सरकारी तंत्र अंग्रेज़ी माध्यम के ‘स्पेशलिस्ट्स’ को प्राथमिकता दे, वहाँ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सम्मान मिलना केवल एक छलावा बनकर रह जाता है। और यह छलावा तब और गहरा हो जाता है जब हमारे ही कुछ वरिष्ठ लेखक, भाषाविद् और तथाकथित हिंदी समर्थक लोग इन प्रश्नों पर चुप्पी साध लेते हैं या उन्हें हाशिये पर डाल देते हैं। उनकी चुप्पी को ‘निष्क्रिय समर्थन’ कहा जा सकता है — उस व्यवस्था के लिए जो अंग्रेज़ी वर्चस्व को बनाए रखने के लिए भारतीय भाषाओं को सजावट की वस्तु की तरह बरतती है।
अब यह आवश्यक हो गया है कि हम केवल ‘हिंदी दिवस’ या ‘भाषा उत्सव’ मनाने की औपचारिकता से बाहर निकलें और जनभाषाओं के अधिकार के लिए एक व्यापक जनांदोलन खड़ा करें। यह आंदोलन केवल हिंदी के लिए नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए होना चाहिए — मराठी, बंगला, कन्नड़, तमिल, मैथिली, भोजपुरी, डोगरी, संथाली, उड़िया, पंजाबी — क्योंकि ये सभी भाषाएँ इस देश की आत्मा हैं। आज जब न्यायालयों में मुकदमे सालों-साल खिंचते हैं और पीड़ित व्यक्ति को उसकी ही भाषा में निर्णय की प्रति नहीं मिलती, तो यह केवल भाषायी भेदभाव नहीं, बल्कि संवैधानिक विषमता है। जब तक हम संविधान के अनुच्छेद 343 से 351 और 350A–350B के भाषायी प्रावधानों को व्यावहारिक रूप से लागू कराने की माँग नहीं करेंगे, तब तक किसी भी ‘राजभाषा पुरस्कार’ या ‘साहित्यिक सेमिनार’ का कोई मूल्य नहीं है।
जनभाषा आंदोलन का भविष्य उन युवाओं के हाथ में है जो भाषायी अन्याय को सिर्फ भावनात्मक मुद्दा नहीं, बल्कि सामाजिक और संवैधानिक अधिकार का विषय मानते हैं। अब समय आ गया है कि हम ‘हिंदी बनाम अंग्रेज़ी’ जैसी सतही बहसों से ऊपर उठें और इस प्रश्न पर बहस करें कि न्यायिक प्रक्रिया, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन और अन्य सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं को कैसे पूर्ण सम्मान और व्यवहार में स्थान दिलाया जाए। इसके लिए नीतिगत दबाव, याचिकाएँ, भाषायी सर्वेक्षण, जनसभाएँ और सामाजिक अभियानों की ज़रूरत है — वही रूप जो ‘भूख के अधिकार’ या ‘सूचना के अधिकार’ के आंदोलनों ने अपनाया। यदि भाषा का प्रश्न भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ा है, तो उसका संघर्ष भी उतना ही व्यापक और जनाधारित होना चाहिए।
जनभाषाओं की उपेक्षा : संविधानिक संकल्प से सामाजिक विसंगति तक : स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारतीय संविधान ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत बहुभाषिक देश है और सभी भाषाओं का समान आदर होगा। संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी गई, पर साथ ही अनुच्छेद 348 में न्यायालयों और विधायिकाओं में अंग्रेज़ी के प्रयोग को तब तक जारी रखने की छूट भी दे दी गई जब तक संसद अन्यथा निर्णय न ले। यहीं से जनभाषाओं के अधिकारों के साथ वह ऐतिहासिक छल आरंभ हुआ, जो आज तक जारी है। उस समय यदि हमारे भाषा प्रेमी बुद्धिजीवी, लेखक, साहित्यकार और शिक्षाविद् मिलकर एक स्पष्ट, संगठित आवाज़ उठाते, तो शायद 1965 के बाद अंग्रेज़ी का यह स्थायी वर्चस्व न बनता। किंतु उस समय के अधिकांश प्रबुद्ध वर्गों ने व्यवस्था के साथ एक प्रकार का ‘समझौता’ कर लिया। उन्होंने भाषायी अधिकार को आत्मगौरव का विषय मानने के बजाय सांस्कृतिक उत्सव का रूप दे दिया — ‘हिंदी पखवाड़ा’, ‘भाषा सप्ताह’, ‘साहित्यिक आयोजन’ और ‘राजभाषा कार्यशालाएँ’। इन सब गतिविधियों में ‘दृश्य’ तो बना, पर ‘दिशा’ नहीं बनी।
न्यायालय में आज भी भारत की 95% जनता को न्याय उनकी अपनी भाषा में नहीं मिलता। यह स्थिति केवल बिहार, यूपी, या ओडिशा तक सीमित नहीं है — यह पूरे देश की विडंबना है। सुप्रीम कोर्ट और अधिकांश उच्च न्यायालयों की कार्यवाहियाँ केवल अंग्रेज़ी में होती हैं और निचली अदालतों में भी यदि कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा में बहस करता है, तो या तो उसकी बात को हल्के में लिया जाता है या उसे अनुवादक की मदद लेनी पड़ती है। सवाल यह है कि जब संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है, तो भाषा के आधार पर यह असमानता क्यों? और यह भी उतना ही गंभीर प्रश्न है कि इन वर्षों में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए संघर्षरत माने जाने वाले संगठनों ने इस विषय पर संगठित राष्ट्रव्यापी आंदोलन क्यों नहीं चलाया? इसका उत्तर कहीं न कहीं इस तथ्य में छिपा है कि इन आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले अनेक व्यक्ति स्वयं भाषायी सुविधाओं के उपभोक्ता बनकर व्यवस्था में समाहित हो चुके थे।
इस द्वैध भूमिका ने भारतीय भाषाओं के आंदोलन को गंभीरता की जगह ‘प्रतीकात्मकता’ की ओर मोड़ दिया। हिंदी का नाम लेकर सरकारी विभागों में राजभाषा अधिकारियों की नियुक्ति, अनुवाद विभागों का विस्तार और सरकारी बजट से अनेक योजनाएँ तो चलाई गईं, परंतु इनका संबंध ज़मीनी जनभाषा चेतना से नहीं रहा। इससे भाषा आंदोलन एक प्रकार का 'नौकरशाही महोत्सव' बन गया — जिसमें कविताएं तो थीं, पर क्रांति नहीं; घोषणाएं तो थीं, पर संघर्ष नहीं; योजनाएं तो थीं, पर परिणाम नहीं। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि आम जनता के भीतर यह विश्वास ही नहीं बन पाया कि हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा में उसे न्याय, शिक्षा या प्रशासन जैसी सेवाएँ मिल सकती हैं।
अब जब भारतीय लोकतंत्र अपनी 78वीं वर्षगाँठ की ओर बढ़ रहा है, तो यह आत्मावलोकन का समय है — हमें स्वयं से पूछना होगा कि क्या हमने अपनी भाषाओं के साथ न्याय किया है? क्या हम उस किसान, उस महिला, उस वृद्ध व्यक्ति की पीड़ा को समझ पा रहे हैं जो अदालत के दरवाज़े पर खड़ा होकर उस भाषा में सुनवाई की अपेक्षा करता है, जो उसकी माँ की बोली है? क्या हम यह कल्पना कर सकते हैं कि अमेरिका, फ्रांस, चीन या जापान में न्यायालय किसी विदेशी भाषा में काम करते हों और आम नागरिक कुछ समझ ही न पाए? यदि नहीं, तो भारत जैसे भाषिक लोकतंत्र में यह क्यों संभव है? जवाब स्पष्ट है — हमने भाषाओं को ‘संस्कृति’ का विषय तो बना लिया, पर ‘सत्ता’ का माध्यम नहीं बना पाए।
इस स्थिति को बदलना है तो अब केवल हिंदी के नाम पर कवि-सम्मेलनों से आगे बढ़ना होगा। अब आवश्यकता है एक संगठित, प्रभावशाली और राष्ट्रीय स्तर के भाषाई जन आंदोलन की — जो केवल नारे नहीं, नीतियाँ माँगे; केवल मंच नहीं, कानूनों में संशोधन माँगे। इस आंदोलन की मांग होनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में हिंदी समेत सभी 8वीं अनुसूची की भाषाओं में कार्यवाही की अनुमति हो; कि इंजीनियरिंग, मेडिकल, लॉ और प्रशासनिक परीक्षाओं की पढ़ाई और परीक्षा भारतीय भाषाओं में सुनिश्चित हो; और कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन और प्रशिक्षण पूरी तरह से मातृभाषा में कराया जाए।
जनभाषाओं में न्याय और शिक्षा - केवल भाषायी अधिकार नहीं, लोकतांत्रिक मर्यादा का प्रश्न : आज जब हम भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धियों पर गर्व करते हैं, तो यह भूलना नहीं चाहिए कि इन 77–78 वर्षों में एक बहुत बड़ा वर्ग भाषा के आधार पर लोकतंत्र के लाभों से वंचित रहा है। भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘न्याय’, ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ और ‘बंधुत्व’ के जिन उच्च आदर्शों की स्थापना की गई थी, वे तभी पूर्ण हो सकते हैं जब हर व्यक्ति को उसकी अपनी भाषा में राज्य की सभी सुविधाएँ — विशेषकर न्याय और शिक्षा — सहजता से उपलब्ध हों। किंतु जब तक व्यक्ति को अपनी भाषा में न्याय नहीं मिलता, तब तक वह संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को व्यावहारिक रूप से प्राप्त नहीं कर सकता। न्याय केवल विधिक प्रक्रिया नहीं है, यह मनुष्य की गरिमा से जुड़ा हुआ एक अत्यंत संवेदनशील पक्ष है। और गरिमा तभी संभव है जब व्यक्ति अपनी बात को उस भाषा में कह सके जिसमें वह सोचता, समझता और दुख-सुख साझा करता है।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को न्यायिक व्यवस्था से काटकर हमने अंग्रेज़ी को एकाधिकार की तरह स्थापित कर दिया है। इसे और अधिक गंभीर इसीलिए कहा जा सकता है क्योंकि यह व्यवस्था केवल औपनिवेशिक विरासत नहीं है — यह आज के स्वतंत्र भारत के भीतर पनपी असमानता की एक संरचना बन चुकी है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी देश के अधिकांश विधि विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है और न्यायालयों में अधिकांश आदेश और निर्णय केवल अंग्रेज़ी में जारी होते हैं। परिणामस्वरूप, न्याय केवल उन लोगों की पहुँच में रह गया है जो अंग्रेज़ी में संवाद कर सकते हैं — बाकी जनता ‘सुनवाई’ तो कर लेती है, पर समझ नहीं पाती कि न्याय मिला है या नहीं। यह केवल भाषायी विफलता नहीं, यह संवैधानिक असमानता का सीधा उदाहरण है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय भाषाओं को जिस प्रकार हाशिये पर डाल दिया गया है, वह न केवल चिंताजनक है, बल्कि आत्मघाती भी है। भारतीय भाषाओं को केवल कक्षा 5 तक पढ़ाई के माध्यम तक सीमित रखने की नीतियाँ और आगे जाकर अंग्रेज़ी को अनिवार्य बनाना, एक प्रकार से बहुसंख्यक छात्र वर्ग को शिक्षा के मुख्यधारा से बाहर करने जैसा है। यह एक खुला तथ्य है कि भारत के गाँवों, कस्बों और मध्यमवर्गीय परिवारों में आज भी अधिकांश छात्र मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषाओं में ही सोचते-समझते हैं। ऐसे में अंग्रेज़ी माध्यम की बाध्यता उन्हें केवल भाषायी स्तर पर नहीं, मानसिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी हीनता का अनुभव कराती है। इससे उनकी आत्मविश्वास क्षमता, संप्रेषण कौशल और नवाचार की संभावना भी प्रभावित होती है।
इस स्थिति को जानबूझकर बनाये रखने की भूमिका में वे संस्थान और व्यक्तित्व भी रहे हैं जो 'हिंदी के हितैषी' कहलाते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से अंग्रेज़ी वर्चस्व को तोड़ने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाते। यह वह वर्ग है जो मंच पर हिंदी के लिए भावुक हो उठता है, लेकिन प्रशासन, विधि, तकनीकी और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में मातृभाषा की मांग करने से कतराता है। वे भूल जाते हैं कि भाषा केवल साहित्य की वस्तु नहीं, बल्कि शक्ति का स्रोत है। भाषा यदि सत्ता और प्रशासन का माध्यम नहीं बनती, तो वह केवल भावनाओं का खेल बनकर रह जाती है। यही कारण है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ अपने देश में बहुसंख्यक होने के बावजूद शक्तिहीन बनी हुई हैं और एक विदेशी भाषा — अंग्रेज़ी — अब भी निर्णयकारी भूमिका में है।
अब जब देश में ‘डिजिटल इंडिया’, ‘विकसित भारत 2047’ और ‘ग्लोबल साउथ की अगुवाई’ जैसे लक्ष्य निर्धारित किए जा रहे हैं, तो क्या यह उचित नहीं होगा कि इन सबके मूल में भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा और प्राथमिकता दी जाए? क्या यह समय नहीं आ गया है कि हिंदी और अन्य जनभाषाओं को केवल भावनात्मक मुद्दा मानना बंद करके उन्हें संवैधानिक, सामाजिक और व्यावसायिक अधिकार का मुद्दा बनाया जाए? क्या अब भी हम केवल ‘हिंदी सप्ताह’, ‘राजभाषा गौरव पुरस्कार’ और ‘साहित्यिक आयोजन’ तक सीमित रहेंगे या इन भाषाओं को वास्तविक ‘सत्ता की भाषा’ बनाएंगे?
यदि इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक है, तो हमें यह भी समझना होगा कि यह परिवर्तन ऊपर से नहीं आएगा। यह केवल जन-आंदोलन से ही संभव है — वह आंदोलन जो अदालतों से लेकर शिक्षा संस्थानों तक, संसद से लेकर नगर पंचायत तक, हर जगह ‘जनभाषाओं में संप्रेषण और निर्णय की अनिवार्यता’ की माँग उठाए। जब तक आम जनता, शिक्षक, छात्र, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार — सभी मिलकर भाषायी अधिकारों के लिए संगठित संघर्ष नहीं करेंगे, तब तक केवल नारेबाज़ी और सांस्कृतिक आयोजन चलते रहेंगे — और भारत की भाषाएँ सत्ता से और भी दूर होती जाएँगी। 
भाषा की लड़ाई बनाम सत्ता की चुप्पी - नई सदी में जनभाषा आंदोलन की अपरिहार्यता : वर्तमान समय में यह अत्यंत आवश्यक है कि हम भाषा के प्रश्न को केवल सांस्कृतिक विमर्श तक सीमित न रखें, बल्कि उसे सीधे-सीधे सत्ता के समीकरणों से जोड़कर देखें। यह कोई संयोग नहीं है कि देश की लगभग 90% जनता हिंदी या किसी न किसी भारतीय भाषा में संवाद करती है, परंतु निर्णय लेने की संस्थाएँ — जैसे न्यायालय, संसद, उच्च शिक्षा परिषद, नियोजन आयोग, नीति आयोग — अब भी अपनी अधिकांश कार्यवाहियाँ अंग्रेज़ी में संचालित करती हैं। इस प्रकार यह व्यवस्था स्पष्ट रूप से एक भाषाई अभिजात वर्ग (linguistic elite) का निर्माण करती है, जिसमें अंग्रेज़ी जानने वाले अल्पसंख्यक को विशिष्ट सुविधा और प्रभाव प्राप्त होता है, जबकि शेष बहुसंख्यक जनसंख्या को ‘दूसरे दर्जे’ का नागरिक बनाकर रख दिया जाता है। यह विभाजन जितना भाषाई है, उतना ही वर्गीय और सामाजिक भी है और यही कारण है कि इसे केवल भाषाई नहीं, सामाजिक न्याय के आंदोलन की तरह देखे जाने की आवश्यकता है।
किसी भी लोकतंत्र की पहली शर्त यह होती है कि उसमें आम जनता को नीति निर्माण की प्रक्रियाओं में सहभागिता का अवसर मिले। किंतु जब राज्य की भाषाएं ही जनता की समझ से परे हो जाएँ, तो लोकतंत्र केवल कागज़ी बनकर रह जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे वरिष्ठ साहित्यकार, भाषा नीति निर्माता और ‘हिंदी के पुरोधा’ कहलाने वाले अनेक विशिष्टजन इस कटु सच्चाई से अनजान नहीं हैं। वे जानते हैं कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ एक गहरे संकट से जूझ रही हैं — विशेषकर व्यवहारिक उपयोग और सम्मान की दृष्टि से — फिर भी उन्होंने या तो ‘सरकारी योजनाओं के तहत सीमित आलोचना’ को चुना है या फिर ‘अनुदान आधारित चुप्पी’ को। यह न केवल खेदजनक है, बल्कि भाषाई आंदोलन के लिए घातक भी है, क्योंकि यह वर्ग आम जनता के भीतर यह संदेश प्रसारित करता है कि भाषा केवल 'साहित्यिक सजावट' है, कोई बुनियादी अधिकार नहीं।
यह भी समझना आवश्यक है कि भाषायी अधिकारों की लड़ाई केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों तक सीमित नहीं है। भारत की तमाम भाषाएं — चाहे वे मराठी, बंगला, गुजराती हों या तमिल, तेलुगु, उड़िया, पंजाबी या असमिया — सबके सब एक जैसी पीड़ा से गुजर रही हैं। उन्हें भी उच्च न्यायालयों में न्याय नहीं मिलता; उन्हें भी मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में दरकिनार किया गया है; उन्हें भी विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों में हाशिए पर रखा गया है। और यह सब तब हो रहा है जब भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहाँ इतनी भाषाई विविधता के बावजूद संविधान में भाषाओं के संरक्षण की प्रतिज्ञा की गई है। सवाल यह है कि यदि संविधान भी भारतीय भाषाओं की रक्षा नहीं कर पा रहा और न ही 'हिंदी प्रेमी' कहलाने वाले विद्वानों की चेतना जाग पा रही, तो फिर उम्मीद किससे की जाए? उत्तर एक ही है — जन से। अब यह लड़ाई केवल लेखकों, शिक्षकों या कानूनविदों की नहीं रह गई है; यह अब हर उस व्यक्ति की लड़ाई है जो अपने बच्चों को, अपने गांव को, अपने समाज को सशक्त बनते देखना चाहता है। यह लड़ाई हर उस छात्र की है जो अंग्रेज़ी न जानने के कारण मेडिकल प्रवेश परीक्षा में पिछड़ जाता है; यह लड़ाई उस गरीब महिला की है जो न्यायालय में कुछ समझ नहीं पाती और सालों तक चक्कर काटती है; यह लड़ाई उस किसान की है जो सरकारी योजनाओं का लाभ इसलिए नहीं उठा पाता क्योंकि आवेदन फार्म अंग्रेज़ी में होते हैं। और सबसे बड़ी बात — यह लड़ाई उस भारत की आत्मा की है, जो भाषाओं के माध्यम से सांस लेती है, विचार करती है और चेतना के विविध रंगों को जीती है।
अब यदि इस भाषाई अन्याय के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठती, तो यह चुप्पी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक भारी कीमत बनकर सामने आएगी। भाषा कोई ‘व्यक्तिगत रूचि’ नहीं होती — वह एक समाज का अस्तित्व, उसकी पहचान और उसकी शक्ति का मूल होती है। इसलिए जनभाषाओं को न्याय, शिक्षा और प्रशासन में स्थान दिलाने की माँग करना कोई कृपा नहीं, बल्कि भारत के प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक और नैतिक अधिकार है। और इस अधिकार की प्राप्ति अब केवल सरकारी नीतियों से नहीं, बल्कि सशक्त जनांदोलन से ही संभव है — एक ऐसा आंदोलन जो केवल हिंदी नहीं, बल्कि भारत की तमाम जनभाषाओं को साथ लेकर चले और जो कहे : "हमें अपनी भाषा में जीने, समझने, पढ़ने, लिखने और न्याय पाने का पूरा अधिकार है — और हम इसके लिए लड़ेंगे भी और जीतेंगे भी।"
जब भाषा अपमानित होती है, तो राष्ट्र का आत्मबल भी क्षीण होता है : अब वह समय नहीं रहा जब भाषाई मुद्दों को केवल 'संवेदनशील सांस्कृतिक प्रश्न' कहकर टाल दिया जाए। यह विषय अब सीधे-सीधे सत्ता, नीति, संविधान और सामाजिक न्याय से जुड़ा हुआ है। भाषा की उपेक्षा केवल बोलियों या भाषियों की उपेक्षा नहीं होती — यह संपूर्ण सांस्कृतिक अस्तित्व, सामाजिक गतिशीलता और मानसिक स्वतंत्रता की हत्या होती है। जब एक राष्ट्र की बहुसंख्यक आबादी को उनकी अपनी भाषा में न्याय नहीं मिलता, तो उस राष्ट्र की लोकतांत्रिक संकल्पनाएँ खोखली सिद्ध होती हैं। और जब एक स्वतंत्र देश की न्यायपालिका, शिक्षा व्यवस्था और प्रशासनिक तंत्र में विदेशी भाषा को 'योग्यता' और 'सक्षमता' का पर्याय बना दिया जाता है, तो वह व्यवस्था गहरे मानसिक उपनिवेशवाद की गिरफ़्त में जी रही होती है।
भारत जैसे देश में जहाँ प्रत्येक गली-मोहल्ले में एक नई बोली जन्म लेती है, वहाँ भाषाओं की गरिमा केवल साहित्यिक गौरव से नहीं, बल्कि व्यवहारिक और संस्थागत मान्यता से निर्धारित होती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज़ादी के 78 वर्षों बाद भी हम केवल "हिंदी दिवस", "राजभाषा पुरस्कार", "साहित्यिक सेमिनार" जैसे आयोजनों तक सिमटे हुए हैं — जबकि आवश्यकता है कि हम माँग करें : सुप्रीम कोर्ट में हमारी भाषा में न्याय मिले; मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हमारी भाषा में हो; सरकारी कार्यालयों में हमारी भाषा में संप्रेषण अनिवार्य हो; प्रतियोगी परीक्षाओं में हमारी भाषाओं को प्राथमिकता दी जाए; और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं को शोध और नवाचार की भाषा बनाया जाए। यह भी अनिवार्य है कि इस भाषाई आंदोलन को केवल 'हिंदी बनाम अंग्रेज़ी' के संकुचित परिप्रेक्ष्य से बाहर लाया जाए। भारत की तमाम भाषाएँ — चाहे वे तमिल हों, मराठी हों, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, डोगरी, उड़िया, बांग्ला या कन्नड़ — सबकी स्थिति लगभग एक जैसी है। सबकी मातृभूमि पर अंग्रेज़ी का प्रशासनिक उपनिवेश आज भी छाया हुआ है। इसलिए यदि इस संघर्ष को वास्तव में सफल बनाना है, तो इसे ‘जनभाषाओं के लिए न्याय’ के नाम से एक साझा आंदोलन में परिवर्तित करना होगा — एक ऐसा आंदोलन जो न केवल सड़कों पर उतरे, बल्कि नीति-निर्माण में प्रभावशाली हस्तक्षेप करे; जो न केवल अदालतों में याचिकाएँ दायर करे, बल्कि जनसमूह को शिक्षित, संगठित और सशक्त करे; जो केवल लेखकों, पत्रकारों, या शिक्षकों तक सीमित न रहे, बल्कि ग्रामीण किसान, मजदूर, महिला समूह, छात्र संगठन, पंचायत प्रतिनिधि — हर वर्ग को जोड़कर एक भाषायी जनक्रांति का स्वरूप ले।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आंदोलन को सबसे पहले उस मानसिकता से लड़ना होगा, जो यह मानती है कि अंग्रेज़ी के बिना ‘प्रगति’ संभव नहीं। हमें यह प्रमाणित करना होगा कि ज्ञान, विज्ञान, न्याय और प्रशासन — सब कुछ मातृभाषा में संभव है और यह न केवल संभव है, बल्कि समाज को न्यायसंगत और समावेशी बनाने का एकमात्र मार्ग भी यही है। इसके लिए 'हिंदी के नाम पर केवल कविता लिखने वाले' वरिष्ठों को अब मंच की चकाचौंध से बाहर आकर जन संघर्ष की धरती पर उतरना होगा। उन्हें अब यह समझना होगा कि कविताबाजी, कार्यक्रमबाजी और 'भाषा पर्यटन' से भाषा का सम्मान नहीं लौटाया जा सकता — इसके लिए एकजुटता, नीति-निर्माण में दबाव और राजनीतिक दृष्टिकोण में बदलाव ज़रूरी है।
अंततः, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि भारतीय भाषाओं में न्याय और शिक्षा की बहाली, केवल भाषाई सम्मान का नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को पुनः प्रतिष्ठित करने का कार्य है। यह आंदोलन केवल व्याकरण और शब्दावली का आंदोलन नहीं, यह आत्मनिर्णय, सांस्कृतिक गौरव और सामाजिक समानता का संघर्ष है। अगर हम आज नहीं जागे, तो अगली पीढ़ियाँ हमें एक ऐसे वर्ग के रूप में याद करेंगी जिन्होंने भाषा के नाम पर केवल रोटियाँ सेंकीं, लेकिन न्याय और शिक्षा से वंचित समाज को चुपचाप स्वीकार किया। इसलिए अब समय है — संकल्प लेने का, संगठित होने का और जनभाषाओं को भारत की 'शासन भाषा' बनाने के यज्ञ में पूर्ण आहुति देने का। क्योंकि जब तक हमारी भाषा अपमानित रहेगी, तब तक हमारी स्वतंत्रता अधूरी रहेगी और जब हमारी भाषाएँ न्याय और नीति की भाषा बनेंगी, तभी भारत सच्चे अर्थों में गणराज्य कहलाएगा। अब नहीं, तो कभी नहीं।
संस्थापक-निदेशक न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन’ एवं अदम्य ग्लोबल फाउंडेशन
सेक्टर एल, आशियाना, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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