हिंदी प्रयोग, सहयोग, विरोध और गतिरोध

डॉ. शैलेश शुक्ला, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र। 
हिंदी राजभाषा बनी, पर व्यावहारिकता से दूर,
नियम किताबों में सजे, पर मन में कसक भरपूर।
दफ्तर-दरबारों में बस, अंग्रेजी का ही राज,
हिंदी जैसे भीख में, माँगे अपना काज।
कहने को सरकारी है, पर दिखती है उपेक्षित,
आदेशों की बाढ़ है, पर क्रियान्वयन वंचित।
भले नीति बने सौ बार, जब मन न हो साफ़,
तो पद पगों के बीच में, रह जाए बस ख़्वाब।
राज्य करें विरोध जब, भाषा की पहचान पर,
हिंदी बनती राजनीति, बनती नहीं अभिमान।
दक्षिण बोले जबरन है, उत्तर दे प्रतिवाद,
हिंदी फँसी भंवर में अब, हारा है संवाद।
बात-बात में गर्व हम, करते रहते दिन-रात,
जब कामकाज में हो, तो खेद की हो बात।
हिंदी का उत्सव मना, भाषण होते अनंत,
किन्तु काम में टाल दें, बस दिखावे के दंत?
अधिकारों की बात कर, लिख दें नया नियम,
पर अमल होता नहीं, ये कैसा है संयम।
बोलो हिंदी शर्म की, या हो गर्विल भाव,
जन-जन की ये बोलियाँ, बनें नहीं बहाव।
शिक्षा में हो भेद सा, भाषा पर संकोच,
बोलें जो अंग्रेज़ी में, वो पाता है सब पोष।
बच्चा बोले माँ की भाषा, स्कूल सदा कहे “नहीं”,
इंग्लिश बोलो ज़ोर से, तभी तुम बनोगे ‘सही’।
परीक्षाएँ हों जहाँ, हिंदी को ना मिलता स्थान,
क्या ऐसे में बचे कभी, भाषा का सम्मान?
मंचों पर कुछ लोग बस, हिंदी को दें नाम,
पर बगलों में फ़ाइलें, इंग्लिश की लें थाम।
ठहरा शब्द सृजन का काम, है तो बहुत धीमा,
तकनीकी के हर काम में, हिंदी को हो पीड़ा।
जनता की पीड़ा यही, भाषा से रही उपेक्षा,
मन बोले जो सहज है, उसे मिले न रेखा।
हिंदी के अधिकारी सभी, झेले व्यंग-विलाप,
ऊपर अंग्रेज़ी बजे, नीचे हो हिंदी का जाप।
बढ़े बखान मान का, तब हो हिंदी सम्मान
पर व्यवहारिक भूमि पर, शीतल उसको जान।
पर व्यवहारिक भूमि पर, शीतल उसको जान।
निज भाषा को हीन मान, युवक करें तिरस्कार
यही विचार छीनता, मातृभाषा का अधिकार।
यही विचार छीनता, मातृभाषा का अधिकार।
आईटी, साइंस, विधि में, हिंदी रह गई अधूरी,
जहाँ कहीं भी काम हो, पड़ती न हिंदी पूरी।
सरकारें जब चाहतीं, हिंदी को देना उभार,
तो करना होगा उसे, हर बाधा को पार।
साहित्य के साथ में, ज्ञान- विज्ञान भी हो साथ,
तभी ज्ञान के क्षेत्र में, आएगी हिंदी की बात।
मानव संसाधन में हो, हिंदी की पूर्ण पहचान,
तभी कहोगे गर्व से, हिंदी से राष्ट्र महान।
वाणी से न सिद्धि हो, करनी दे परिणाम
नियम-नियंत्रण से नहीं, उपजें सत्प्रणाम।
नियम-नियंत्रण से नहीं, उपजें सत्प्रणाम।
अनुवाद हो सटीक, उत्तम तकनीकी शब्दकोष,
हिंदी को दें मंच पर, वैज्ञानिकतापूर्ण सन्तोष।
जन-जन की भाषा बने, सत्ता की भी बात,
राजभाषा तब बन सके, जब बने औकात।
प्रेम मिले हर क्षेत्र में, हो सह-अस्तित्व का भाव
हिंदी को सब सहयोग दे, फैले शुभता की छाँव।
मातृभाषा, राजभाषा, जनता का बने विश्वास,
इन सबमें हो एकता, तभी सधें सब विकास।
कविता यही कहे तुम्हें, अब भी कुछ है शेष,
हिंदी को सब प्यार दो, मत बाँटो ये देश।
राजभाषा सीमित न रह, बन कागज की सरकार।
जीवन में जन-जन के हो, तब हो उत्तम उद्धार।
राजभाषा हो न केवल, अधिकार की बस बात
संस्कारों में ढल सके, बने वही पुण्य प्रभात।
संस्कारों में ढल सके, बने वही पुण्य प्रभात।
राजभाषा अधिकार से, हो व्यवहार सब समाय।
नियम नहीं, संस्कृति बने, राष्ट्रधर्म सर्व सुभाय॥

लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह
आशियाना (लखनऊ) उत्तर प्रदेश

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