घी रोटी !
सूरज सिंह राजपूत, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
मां !
मेरे हिस्से की क्या हुई ?
क्या वह सच में बहुत अच्छी होती है ?
स्कूल में,
हर दिन कोई ना कोई लाता है
घी रोटी !

मैं ... ,
मां मैं कभी क्यों नहीं ले जाता ?
तुम तो हमेशा कहती हो .... कल ले जाना !
कल , कल
ये कल कब आएगा ?
अब तो,
मां अब तो सब मुझे चिड़ते हैं ... प्याज रोटी !

मां !
पापा कब लायेंगे ?
धी रोटी !
वो कहां गए ?
कब आयेंगे ?
कब लायेंगे ?
धी रोटी !

मुझे याद है
पापा लाए थे ...
बहोत पहले
अंडे की सब्जी और घी रोटी,
पापा अपने हाथों से खिलाए थे !
अब इतने दिनों से नहीं आए,
सब लोग बुरे हैं...
उनके शरीर घी मल दिया
और न जानें कहां ले गाए ?
पापा को कंधे पर झूला झुलाते ...

मां !
क्या पापा घी लेकर गए हैं लाने की रोटी ?
सब लोग खाए थे तब हमारे घर
पूरी पकवान और दही भी !
अब कोई नहीं आता हमारे घर,
मां, तब मैं तीसरी कक्षा मे था ।
मां तु, तू न रो,
मुझे नहीं चहिए
धी रोटी!

अब मैं पांचवी कक्षा में हूं !
जब बड़ा हो जाऊंगा ,
मैं लेकर आऊंगा ।
पापा को भी बुलाना,
हम साथ खाएंगे,
धी रोटी!
मीडिया प्रभारी अखिल भारतीय साहित्य परिषद जमशेदपुर

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