माँ-बाप का साया अहम, लेकिन.......
मदन सुमित्रा सिंघल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
संस्कारी एवं आदर्श परिवार के मुखिया दादा-दादी के बाद माँ-बाप होते हैं, जो अपनी औलाद को सिर्फ जन्म ही नहीं देते, बल्कि सुंदर स्वस्थ एवं आन बान शान से जीने के लिए परिवार समाज व्यापार वाणिज्य एवं देश के लिए जीने के लिए प्रेरित करते हैं। उन्हें त्यागी तपस्वी बलिदानी एवं सुसंस्कारित बनाने के लिए बाल्यकाल से अपने रहने तक समाज विज्ञान धर्म शास्त्र एवं अन्य विधाओं से इसलिए भी निपुण करते हैं ताकि उच्च शिक्षित होने के साथ साथ अपने जीवन को आदर्श मांबाप के पदचिन्हों पर चलकर नाम रोशन करें। जो माँ अथवा बाप अपने आप को सजाने संवारने बच्चों में भेदभाव बहूओं के प्रति दुराव रखते हैं, उन्हें ना तो घर में ना ही उधर में सम्मान प्राप्त कर सकते हैंलोगों को वस्तुस्थिति की शत प्रतिशत जानकारी भले ही ना हो लेकिन खिङकियों से दुराचार सिसकार एवं तिरस्कार अपने आप उङ जाता है। धिक्कार है ऐसे लोगों को जो अपने घर को संवारने के बजाय बगङ बुहारने की नौटंकी करते हैं। 
शिक्षा से जहाँ बच्चों में सुधार आया है वही दकियानुसी में भी बदलाव आया है, उससे हजारो में ही एक मामला हो सकता है, जिसमें मानवता संस्कार एवं उच्च नीच का ज्ञान ना हो। एकल परिवार होने के कारण जहाँ बहू-बेटे माँ-बाप को अनाथालयों में छोड़ आते थे, वहीं धार्मिक औलाद बङे सम्मान के साथ अपने माँ-बाप को अपने बच्चों के संरक्षण के लिए सभी सुख-सुविधा एवं उनके अधिकारों के साथ रखते हैं, उन्हें दवा-पानी, फल-दुध अच्छे से अच्छी सुविधा देकर व्यस्त जीवन में भी तीर्थाटन पर ले जाते हैं। मजाल है कि माँ बाप की अवहेलना करें। 
फिर भी यह कङवा सच है कि औलाद से पहले उन्हें भी जाना पङेगा, यदि चलते फिरते चले जाते हैं अथवा थोड़ी बहुत तबियत खराब के बाद समय उम्र के पहले भी चले जाते हैं तो परिवार का प्रबंधन संभालना ही होता है। यदि आरंभ में ही सचेत रहते हुए सुप्रबंध कर सकें उनके अधुरे सपनों को पूरा करने के लिए प्रयास जरूर करना होगा। मृत्यु के बाद लोग दिखाउ चोंचले करने से उचित होगा कि उनके रहते ही उनके हाथों से धार्मिक सामाजिक कार्यक्रम करना चाहिए। 
पत्रकार एवं साहित्यकार शिलचर, असम
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