दुखद ! ! भारत में 1400 सालों से उत्पादक शीलता पर चर्चा ही नहीं होती !

भीष्म कुकरेती, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

भारत आज सब ओर से संघर्षरत है। प्रजातंत्र में पर खचांग लगाने नहीं प्रजातंत्र को समाप्त करवाने परिवारवाद का हर प्रदेश में नहीं हर पार्टी में बोलबाला है। जब चुनाव आते हैं, फिर से चुनाव में जीतने या विरोधी को लतपत चित्त करने हेतु विकास, मुफ्त, गरीबी हटाने आदि की चर्चा में अग्यो लग जाता है। मुफ्त, विकास व गरीबी हटाना आवश्यक है। होना भी चाहिए, किन्तु भारत पिछले 1400 सालों से एक विभीषिका से लड़ रहा है और सिरमौर (सर्वश्रेष्ठ, मुकुट ) देश हर तरह से पिछड़ रहा है या मात खा रहा है। यह विभीषिका है भारत में उत्पादकशीलता याने प्रोडक्टिविटी पर चर्चा न होना। उत्पादकशीलता विचार गुप्त काल के पश्चात भारत से सर्वथा लुप्त हो गया है।  प्रोडक्टिविटी ट्रेडिंग के पैर धो उसे चरणामृत समझ पी रही है। 
गुप्त काल के पश्चात राजकीय उठा-पटक होते रहे और उत्पादनशीलता याने प्रोडक्टिविटी विचार नेपथ्य में चला गया।  राजकीय उठा-पटक में शासकों का एक ही कार्य था और वह था कर लेना व कर उगाने या वे सरददर जिन्हे हम अब भगवान का दर्जा तक दे रहे हैं। वे लूटमार कर महान बन बैठे थे। छोटे-मोटे सरदार या सूबेदार  लूटमार कर अपना रूतबा बढ़ाने में लगे थे। आम जनता कर व असुरक्षित वातावरण के भय रहते खेती उतना ही करते थे, जितनी खेती से अपना पेट भर सके। खेती में इन 1400 सालों में भारत ने कोई क्रांतिकारी अन्वेषण ही नहीं किया। यदि पुरातत्व इतिहास पर नजर डालें तो कृषि उपकरण आज भी लगभग वही हैं, जो गुप्त काल में थे। पद्धति के शल्य चिकित्सा व आयुर्वेद औषधि में भी कोई क्रांतिकारी खोज नही हुयी। गुप्त काल का निर्यातित वस्तुएँ इतिहास बन चुका था। 
ब्रिटिश शासन में उत्पादनशीलता शुरू हुयी, किन्तु स्वतंत्रता पश्चात प्रोडक्टिविटी की चर्चा याने कम्युनिस्ट विचारकों की गाली व मार खाना। आज अच्छी सरकार का अर्थ है लोन माफ़, मुफ्त में कुछ देना, बिना प्रोडक्टिविटी के तनख्वाह या ध्याड़ी मिलना। यदि कभी सरकार प्रोडक्टिविटी वृद्धि की चर्चा शुरू करे भी तो हमारे बाम विचारक कैकयी बन डंसने लगते हैं और प्रोडक्टिविटी को गड्ढे में धकेल देते हैं। बिजली निशुल्क, पुरानी पेंशन, वापस दो, बेरोजगारों को वजीफा, विधवावों को पेंशन, वरिष्ठ नागरिकों को पेंशन सब उचित है, इसमें किसी को भी अनुचित न लगेगा, किन्तु यदि कोई राज्य उत्पादन वृद्धि न कर सब कुछ निशुल्क देने की घोषणा करता है तो पूछा जाना चाहिए कि यदि उत्पादन शीलता में वृद्धि नहीं तो कहाँ से इन लुभावनी योजनाओं को धन आएगा ? इण्डिया टुडे के इस मॉस के सर्वेक्षण से पता चलता है कि आम भारतीय निशुल्क कुछ नहीं चाहता, किन्तु अपनी समृद्धि चाहता है, जिससे सब्सिडी व फ्री से मुक्ति पा जाय।
रोजगार गारंटी, आय गारंटी आवश्यक है, किन्तु यदि प्रोडक्टिविटी वृद्धि न होगी तो इन गारंटियों के लिए धन कहाँ से आएगा? भारत के उद्योगपति वास्तव में उद्योगपति हैं ही नहीं, वे तो ट्रेडर्स हैं। उन्हें 1400 वर्षों में प्रोडक्शन या प्रोडक्टिविटी की कभी चिंता थी ही नहीं।  आज भी उन्हें प्रोडक्टिविटी नहीं सार्वजनिक धन (लोन लेकर बकिंग ध्वस्त करना, कर चोरी करना ) व श्रम शोषण की अधिक चिंता है, ना कि प्रोडक्टिविटी बढ़ाकर श्रमिकों के मध्य आय वितरण करना। इसी तरह राजनीतिज्ञों को भी अपना घर भरने की पड़ी है, कोई नई सोच नहीं लाते कि गरीबी भी समाप्त हो और प्रोडक्टिविटी भी बढ़े।  
अब आम जनता को ही सोचना पड़ेगा कि बगैर प्रोडक्टिविटी बढ़ाये देस का कोई विकास न होगा। सड़क, पानी, बिजली सब आवश्यक हैं, किन्तु बगैर प्रोडक्टिविटी बढ़ाये सब कुछ समय बाद शून्य हो जाएगा। आज प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है कि चर्चा प्रोडक्टिविटी वृद्धि की हो, ना कि मुफ्त में बगैर उत्पादनशीलता के मनरेगा जैसी योजना का। 
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