बंदर के हाथ हल्दी की गांठ लगी समझने लगा पंसारी ( व्यंग्य)

मदन सुमित्रा सिंघल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

धीरे धीरे पुरानी परंपरा रिति रिवाज चलन पहनावे चालढाल सभी में बदलाव किये जा रहे हैं जो, समयोचित भी होता है। क्योंकि अप्रासंगिक चलनों में तब्दीली अति आवश्यक है जैसे एक पैसा दो तीन पांच दस बीस चार आना आठ आना देखते देखते बंद हो गये। एक रूपये तथा दो के नोट तो ऐसे गायब हुए कि जैसे नोटबंदी की गई। हालांकि एक रुपये दो रुपये के सिक्के लोग इसलिए रखते हैं ताकि मंदिरों में चढ़ा सकें उसकी आवाज भी होती है। मोदी सरकार ने दो हजार निर्थक कानूनों को खत्म इसलिए कर दिया कि उनकी जरूरत नहीं है बल्कि न्यायिक प्रक्रिया में बाधा डालने के लिए अनावश्यक थे। जीवन में हर समाज में जन्म मरण विवाह शादी में ऐसे अप्रसांगिक पल होते हैं जिसे हम कृत्रिम रूप से तथा अनमने ढंग से अपनाने को मजबूर है, लेकिन हजारों सालों से प्रचलित लोकोपक्ति मुहावरा एवं कहावत आज भी प्रासंगिक है जिसका हम उदाहरण सहित प्रयोग करते हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो भरपूर प्रयोग करते हैं। साहित्य में साहित्यकार जहाँ जहाँ इस्तेमाल करते हैं। हालांकि यह सब बहुत छोटे छोटे शब्द होते हैं लेकिन,, *देखन में छोटे लगे घाव करे गंभीर*,, । 

अयोग्य व्यक्ति को किसी भी कारण से कोई धन पद शक्ति अथवा यश मिल जाता है तो स्वाभाविक ही है कि उसे अतिरिक्त घमंड हो जायेगा। औकात के अनुसार मिलने से तो सदुपयोग होगा वरना बंदर के हाथ हल्दी की गांठ लगने से वो अपने आप को पंसारी समझने लगता है। ऐसे पंसारी से ना तो ग्राहकों को ना ही स्वयं को फायदा होगा। आज ऐसे तथाकथित पंसारियों की समाज में भरमार होती है लेकिन उनके पीछे पीछे चलने वाले दास प्रवृत्ति के लोग अपने आप मिल जाते हैं कि उनको सीए अथवा पीए रखने की जरुरत नहीं होती। 
    करत कुसंग चाहत कुशल, यह रहीम जीए सोस
    महिमा घटी समुंदर की, रावण बस्यो  पङोस
लेकिन गुरु चेले अपनी दुकान चलाते रहते हैं जनता को भले ही अटपटे लगे किंतु इन चिकने घङों पर कोई असर नहीं होता। 
पत्रकार एवं साहित्यकार (शिलचर) असम
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