शिवपुराण से....... (377) गतांक से आगे.......रूद्र संहिता, द्वितीय (सती) खण्ड

प्रयाग में समस्त महात्मा मुनियों द्वारा किये गये यज्ञ में दक्ष का भगवान् शिव को तिरस्कारपूर्वक शाप देना तथा नन्दी द्वारा ब्राह्मणकुल को शाप प्रदान, भगवान् शिव का नन्दी को शान्त करना

गतांक से आगे.... सदाशिव ने कहा- नन्दिन! मेरी बात सुनो। तुम तो परमज्ञानी हो। तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिए। तुमने भ्रम से यह समझकर कि मुझे शाप दिया गया, व्यर्थ ही ब्राह्मणकुल को शाप दे डाला। वास्तव में मुझे किसी का शाप छू ही नहीं सकता, अतः तुम्हें उत्तेजित नहीं होना चाहिए। वेद मंत्राक्षयमय और सूक्तमय है, उसके प्रत्येक सूक्त में समस्त देहधारियों के आत्मा ;परमात्माद्ध प्रतिष्ठित है। अतः उन मन्त्रों के ज्ञात नित्य आत्मवेत्ता हैं, इसलिए तुम रोषवश उन्हें शाप न दो। किसी की बुद्धि कितनी ही ही दूषित क्यों न हो, वह कभी वेदों को शाप नहीं दे सकता। इस समय मुझे शाप नहीं मिला है, इस बात को तुम्हें ठीक-ठीक समझना चाहिए। महामते! तुम सनकादिक सिद्धों को भी तत्वज्ञान का उपदेश देने वाले हो। अतः शान्त हो जाओ। मैं ही यज्ञ हूं, मैं ही यज्ञकर्म हूं, यज्ञों के अंगभूत समस्त उपकरण भी मैं ही हूं। यज्ञ की आत्मा मैं हूं। यज्ञपरायण यजमान भी मैं हूं और यज्ञ से बहिष्कृत भी मैं ही हूं। यह कौन, तुम कौन और ये कौन? वास्तव में सब मैं ही हूं। तुम अपनी बुद्धि से इस बात का विचार करो। तुमने ब्राह्मणों को व्यर्थ ही शाप दिया है। महामते! नन्दिन! तुम तत्वज्ञान के द्वारा प्रपंच-रचना का बाध करके आत्मनिष्ठ ज्ञानी और क्रोध आदि से शून्य हो जाओ।

(शेष आगामी अंक में)

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