शिवपुराण से....... (357) गतांक से आगे.......रूद्र संहिता (प्रथम सृष्टिखण्ड़)

सती का प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान् शिव द्वारा ज्ञान एवं नवध भक्ति के स्वरूप का विवेचन........

गतांक से आगे............ ये मेरी भक्ति के नौ अंग हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। इनसे ज्ञान का प्राकट्य होता है तथा ये सब साधन मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। मेरी भक्ति के बहुत से उपांग भी कहे गये हैं, जैसे बिल्व आदि का सेवन आदि। इनका विचार से समझ लेना चाहिए।

प्रिये! इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम है। यह ज्ञान-वैराग्य की जननी है और मुक्ति इसकी दासी है। यह सदा सब साधनों से ऊपर विराजमान है। यह भक्ति मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिय है। जिसके चित्त में नित्य-निरन्तर यह भक्ति निवास करती है, वह साधक मुझे अत्यन्त प्यारा है। देवेश्वरि! तीनों लोकों और चारो युगों भक्ति के समा दूसरा कोई सुखदायक मार्ग नहीं है। कलियुग में यह विशेष सुखद एवं सुविधजनक है। 

त्रैलोक्ये भक्तिसदृशः पंथा नास्ति सुखावहः, चतुर्युगेषु देवेशि कलौ तु सुविशेषतः।

                                                 (शि.पु.रू.सं.स.खं 23/38)

देवि! कलियुग में प्रायः ज्ञान और वैराग्य के कोई ग्राहक नहीं हैं। इसलिये वे दोनों वृद्ध, उत्साह शून्य और जर्जर हो गये हैं। परन्तु भक्ति कलियुग में तथा अन्य सब युगों में भी प्रत्यक्ष फल देने वाली है। भक्ति के प्रभाव से मैं सदा उसके वश में रहता हूं इसमें संशय नहीं है। संसार में जो भक्तिमान पुरूष हैं,  

(शेष आगामी अंक में)

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