शिवपुराण से....... (353) गतांक से आगे.......रूद्र संहिता (प्रथम सृष्टिखण्ड़)

सती का प्रश्न तथा उसके उत्तर में भगवान् शिव द्वारा ज्ञान एवं नवध भक्ति के स्वरूप का विवेचन........

गतांक से आगे............ आप परम पुरूष हैं। सबके स्वामी हैं। रजागुण, सत्वगुण और तमोगुण से परे हैं। निर्गुण भी हैं, सगुण भी हैं। सबके साक्षी, निर्विकार और महाप्रभु हैं। हर! मैं धन्य हूं, जो आपकी कामिनी और और आपके साथ सुन्दर विहार करने वाली आपकी प्रिया हुई। स्वामिन्! आप अपनी भक्तवत्सलता से ही प्रेरित होकर मेरे पति हुए हैं। नाथ! मैंने बहुत वर्षों तक आपके साथ विहार किया है। महेशान! इससे मैं बहुत संतुष्ट हुई हूं और अब मेरा मन उधर से हट गया है। देवेश्वर हर! अब तो मैं उस परम तत्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हूं, जो निरतिशय सुख प्रदान करने वाला है तथा जिसके द्वारा जीव संसार दुख से अनायास ही उद्धार पा सकता है। नाथ! जिस कर्म का अनुष्ठान करके विषयी जीव भी परम पद को प्राप्त कर लें और संसार बंधन में न बंधें, उसे आप बताईये, मुझ पर कृपा कीजिये।

ब्रह्मा जी कहते हैं-मुने! इस प्रकार आदिशक्ति महेश्वरी सती ने केवल जीवों के उद्धार के लिए जब उत्तम भक्तिभाव के साथ भगवान् शंकर से प्रश्न किया, तब उनके उस प्रश्न को सुनकर स्वेच्छा से शरीर धारण करने वाले तथा योग के द्वारा भोग से विरक्त चित्त वाले स्वामी शिव ने अत्यन्त प्रसन्न होकर सती से इस प्रकार कहा।

शिव बोले- देवि! दक्षनन्दिनी! महेश्वरी! सुनो, मैं उसी परम तत्व का वर्णन करता हूं, जिससे वासनाबद्ध जीव तत्काल मुक्त हो जाता है।  

(शेष आगामी अंक में)

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