डॉ. रमाकांत क्षितिज, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
स्कूल में डेढ़ दिन के लिए श्री गणेश जी की मूर्ति का आगमन हुआ। मूर्ति इसलिए कह रहा हूँ,कि श्री गणेश बुध्दि के रूप में हर प्राणी में हैं ही, जब वे जगत जननी के अंश है तो फिर कण कण में ही विराजमान है। स्कूल में इस रूप में डेढ़ दिन रहे, उनके साथ हम सभी उनकी पूजा-अर्चना मे व्यस्त रहे। लगभग 36 घण्टे कैसे बीत गए पता ही नही चला। पिछले दो वर्ष से स्कूल बंद है। बच्चे आते नही, इनके इस रूप में आने से लगा, जैसे स्कूल चालू हो गया है। पूरे स्कूल में, सभी कमरों में, मैदान में जो कई महीनों से खालीपन था। वह भरा भरा लगा। आरती के समय हम सब की आवाज, उस आवाज में श्री गणेश की आराधना, प्रार्थना स्कूल के रोम-रोम में समा रही है, ऐसा प्रतीत हुआ। स्कूल में उपस्थित छोटे-बड़े पेड़ पौधे में भी एक विशेष प्रकार की उमंग दिखी, वे थोड़ी सी भी हवा चलने पर झूम रहे थे, नाच रहे थे। बड़े पेड़ तो मस्ती में थे ही, छोटे पेड़ तो बच्चों की भांति उनका बस नही चल रहा था, वरना वे गमलों से बाहर आने को तैयार खड़े थे। पेड़-पौधों में प्राण होते हैं। यह सनातन संस्कृति मानती है, जानती है। जगदीश चन्द्र बोस ने भी इस पर काफी शोध किया है और इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि पेड़ो में प्राण तो होते ही हैं, उनमें सम्वेदना भी है। तुलसी के पौधे की खुशी तो देखते ही बन रही थी। उनकी पत्तियां, जिन्हें मैं रोज खाता हूं, वे प्रसाद में स्वयं को पाकर निहाल हो रही थी। कमरे में रखी बेंचे शबरी की तरह प्रसन्नता की उच्चतम सीमा को महसूस कर पा रही थी। स्कूल की इमारत में लगा लोहा, सीमेंट कण-कण अपने को भाग्यशाली महसूस कर रहा था। स्कूल में रखी किताबों से लेकर नोटिस बोर्ड सभी उम्मीद से भर गए हैं। उन्हें लग रहा है, उनके दिन अब बहुरेंगे, एक बार फिर उनका प्रयोग होगा। बच्चे आएंगे स्कूल फिर शुरू होंगे। स्कूल का मैदान तो ठहाके लगा रहा था। उसकी प्रसन्नता का तो कोई ओर-छोर ही न था। स्कूल में कान्हा जी, हमेशा रहते ही है। प्रथम पूज्य श्री गणेश की आवभगत देखकर वे भी बहुत प्रसन्न दिखे। उनकी बांसुरी की मीठी आवाज़ श्री गणेश की हर पूजा आराधना में शामिल होकर हम सब को धन्य कर रही थी। शाम को हम सब श्री गणेश की मूर्ति के विसर्जन को निकले, श्री गणेश का विसर्जन तो हो ही नही सकता। मूर्ति का ही हो सकता है। विसर्जन के मार्ग में कुछ बच्चों और युवा शिक्षकों ने खूब डांस किया। एक-दूसरे पर गुलाल भी लगाया। छोटी सी यात्रा किसी चारो धाम की यात्रा से कम न थी। परिवार के लोग कुछ बहुत करीबी मित्र भी इस यात्रा में शामिल रहे। विसर्जन स्थल पर श्री गणेश जी की आरती आराधना की गई। इसमें सभी थोड़ा भावुक भी हुए, जाती हुई मूर्ति के कान में कुछ कहने की होड़ सी लग गई। इसके बाद कोरोना प्रोटोकॉल के अंतर्गत मैं, चन्दन विनोद भाई मूर्ति को लेकर कृतिम तालाब तक गए। वहाँ खड़े कार्यकताओ ने मूर्ति को पानी मे विसर्जित किया। हम अपने से दूर होते जा रहे मूर्ति रूपी श्रीगणेश को निहार रहे थे। मन सोच रहा था कि मूर्ति ही तो जा रही है। श्री गणेश तो यही आस-पास हम सब में है। साधारण मनुष्य होने के कारण पीड़ा भी हो रही थी, उनके जाने का दुख हो रहा था, यही तो माया है। पता है, श्री गणेश नही जा रहे, मूर्ति ही पानी मे जाएगी, पर कष्ट तो हो रहा था। एक दिन हम सब भी इसी तरह जाएंगे, हमारा भी स्थूल शरीर ही जाएगा, हम तो जाएंगे नही। हमारी आध्यात्मिक चेतना जगी नही है, इसलिए हम किसी के इस तरह जाने पर रोते हैं, विलखते हैं। श्री गणेश जी की मूर्ति की तरह ही हम सब का शरीर हमारे भीतर विराजमान आत्मा के मूर्ति की ही तरह तो है। इस शरीर रूपी मूर्ति का विसर्जन तो पक्का ही होगा। विसर्जन भी अपने ही करेंगे, रोयेंगे-विलखेंगे। काश ! मूर्ति विसर्जन की तरह इंसान अपनों का विसर्जन कर पाता तो मृत्यु भी उत्सव बन जाती। जिनकी आध्यात्मिक चेतना जागृत नही, उनके लिए यह असम्भव है। करोड़ो में ही कोई इस अवस्था को पहुँच पाता है। वही बुध्द, महावीर, मीरा, कबीर, जीसस कहलाता है। बुध्द, महावीर, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, मीरा, कबीर जीसस सिर्फ व्यक्ति नही, एक आध्यात्मिक जागृत चेतना की अवस्था हैं। यह अवस्था किसी जीव को उसकी कृपा से ही मिल सकती है।
संकलन विनोद कुमार सीताराम दुबे संस्थापक इन्द्रजीत पुस्तकालय एवं सीताराम ग्रामीण साहित्य परिषद जुड़पुर रामनगर विधमौवा मड़ियाहूं जौनपुर उत्तर प्रदेश