डॉ. रमाकांत क्षितिज, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र
वर्षों पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में, नागपंचमी के दिन कई तरह के आयोजन किए जाते थे। सुबह के समय युवा वर्ग अखाड़ा कूदता था। अखाड़े की तैयारी महीनों पहले से शुरू ही जाती। युवा बच्चे अखाड़ा कूदने का अभ्यास लगभग हर शाम करते। नागपंचमी के दिन उस दौर में युवाओं को अपनी शारिरिक शक्ति दिखाने का अवसर होता, जो जीत जाता वह कई महीने चर्चा में बना रहता। यदि कोई पिछला चेम्पियन हार जाता तो वह भी चर्चा में बना रहता। उस समय ग्रामीण जीवन में लड़के इन्ही जीतनेवालो में से, किसी को अपना हीरो मान लेते। यह आयोजन लगभग हर गांव में होता। उस समय बाजारे कम हुआ करती थी। दोपहर को घर मे पकवान बनता औरतें उसी में व्यस्त रहती। नीम, आम के पेड़ों पर झूले होते। युवतियां उस पर झूलते हुए गीत गाती। शाम को लोग एक दूसरे के घर जाते, जिसे अमेठी जैसे क्षेत्र में शोभावन कहा जाता। हम सब गैरिकपुर, भदावं, हारीपुर, हीरापुर आदि गांवों में जाते। भदाँव ठाकुरों का गांव है, हमारे पूर्वजों के अनुसार वे ही हमारे असली ठाकुर हैं। असली ठाकुर से मतलब उस समय ज़मीदार अकसर ठाकुर ही होते थे। भदाँव के ठाकुर परिवारों ने कभी हमें ज़मीने दी थी। उस समय हाथ में पानी अक्षत लेकर पंडित जी की उपस्थिति में संकल्प कर कुछ लेकर या मुफ्त में भी दान कर देते। यही उस समय की रजिस्ट्री थी। मेरे बाबा के दौर से लेकर आज तक इस गांव का हमारा सम्बन्ध परिवार जैसा ही रहा है। भदाँव से आज भी हम सब का गहरा लगाव हैं। शोभावन के लिए आए लोगों का खूब स्वागत किया जाता। एक बात और होती थी। सुबह के समय लड़कियां कपड़े की गुड़िया बनाकर, किसी बाग या खेत या रास्ते पर फेंक देती। बच्चे रंगे हुए लाठी डंडों से उन फेंकी हुई गुड़ियों की पिटाई करते। अब यह प्रथा लगभग बंद ही हो गयी है।
इस प्रथा के पीछे प्रचलित कहानियों में औरत जाति की गलती की सज़ा का उल्लेख मिलता है, जो यह बताता है कि लड़कियां हमेशा से ही पिटती रही हैं। कभी सच में तो कभी प्रतीकात्मक भी। आज भी कोई भी समाचार देख लें। लगभग हर समाचार मे किसी न किसी बहाने किसी लड़की या औरत की पिटने या प्रताड़ित होने की ख़बर मिल ही जाएगी। औरतों को बात नही पचती, इसी से जुड़ी कहानी है। कुंती को भी इसी के लिए श्राप मिला था। धर्मराज पुत्र युधिष्ठिर से, जैसे वह कर्ण की कहानी बता देती तो वह कर्ण को न मारते। पितामह भीष्म की तरह तब भी कोई उचित कारण ढूढ ही लिया जाता। कुंती मां है, पर स्त्री ही तो है। युधिष्ठिर पुत्र है, पर पुरुष तो है। आज भी समाज में स्त्री मां बनकर भी गुड़िया ही रह जाती है। उसका गुड्डा बेटा भी बड़ा होकर उसे कोसने से लेकर पीटने तक का काम करता है। डाटना तो सामान्य बात है। वृंदा को भी जलन्धर के किए की सजा मिलती है। भगवान परशुराम पुत्र होकर भी माता का गला काट देते हैं। ईश्वर लीला कहने पर तो यह सब सामान्य लगता है, परन्तु सामान्य तौर पर देखने पर मन में प्रश्न उठते ही हैं। अहिल्या को श्राप... इसी तरह तब से अब तक गुड़िया पिट ही तो रही है। " गुड़िया "का मतलब ही भोलीभाली " "गुड्डा " मतलब ताकतवर......जनमेजय तक्षक साँप की कथा भी इस त्यौहार से जुड़ी है। इन सभी कथाओ के अन्य कारण भी हो सकते है। अभी पिछले दिनों एक लड़की को जींस पहनने पर उसके ही परिवार वालों ने उसे पीट पीटकर मार डाला,गुड़िया अब भी पिटती है। गुड़िया बड़ी होकर एक बच्चा करे,दो करे ,कितना करे ,यह सब अब भी उसे पीटने वाला पुरुष ही तय कर रहा है,जब कि बच्चा उसे जनन है । गुडिया सिर्फ अपने यहां ही नही,किसी न किसी बहाने दुनिया भर में पिटती रहती ही है। नागपंचमी को देश के कुछ हिस्सों में " गुड़िया " के नाम से भी मनाया जाता है। गुड़िया कभी बड़ी भी होगी पता नही ! उपनिवेशवाद से मुक्त, कई देश , दशकों पहले आज़ाद हो गए। गुड़िया पुरूषवाद से कब आज़ाद होगी ! उसका भी अपना संविधान होगा कभी ! जिसे उसने बनाया हो या अंतरिम स्वतन्त्र ही रहेगी...जो पुरुषों ने उन्हें दिया है ....औरतों ने उसे ही आज़ादी समझा हो.... खैर ! ..