सतलुज घाटी में गो पूजन और देव पूजा से जुड़ा है भुन्जो मेला






 

डा हिमेंद्र बाली, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

 

सतलुज उपत्यका में बसे कुल्लू के बाहरी सिराज, शिमला के बड़ागांव सांगरी व मण्डी के सुकेत क्षेत्र में भाद्रपद शुक्ल पंचमी को भुन्जो पर्व का पारम्परिक ढंग से आयेजन किया जाता है। भाद्रपद पंचमी को सप्तर्षि कश्यप, अत्री, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, वशिष्ठ के साथ अरूंधती की पूजा का शास्त्रीय विधान सारे भारत में प्रचलित है। पौराणिक कथा के अनुसार विदर्भ नगर में उतंक नामक ब्राह्मण की पुत्री जो पूर्व जन्म के रजस्वला धर्म के पाप से ग्रसित थी, ने रिषी पचमी का व्रत रख कर पाप से मुक्ति पायी थी। वास्तव में सप्तर्षि को ही कल्प के अंत में प्रलय के बाद पुन: सृष्टि का कारक माना जाता है। अत: स्वाभाविक है कि यह हिमालयी क्षेत्र सृष्टि का उदगम होने के कारण यहां आदि रिषियों के प्रति श्रद्धा भाव दृष्टिगोचर होता है।

भाद्रपद मास की कृष्ण द्वादशी को सांगरी बड़ागांव में ब्राह्मण सुहागिनें उपवास रखकर लकड़ी के मण्डल पर जौ को मिट्टी पर बीजती हैं। यही परम्परा बाहरी सिराज के दलाश के रिवाज़ी, रोम, गोहान व चपोहल की छई बी क्षेत्र में भी प्रचलित है। शिमला के कुमारसैन क्षेत्र के बाड़ा, लाठी, मतेवग और ढियूंगली गांव की ब्राह्मण बस्तियों में जौ का बीजारोपण कड़ी व शाख को पूजा वाले स्थान पर प्रतिष्ठित किया जाता है। यही परम्परा सतलुज के दायीं ओर सुकेत के तेवन (शाड़ा), स्यांज बगड़ा व सेरी बंगलों में प्रचलित है। यहां भी ब्राह्मण सुहागिनें शाखा अर्थात् कड़ी का आरेपण करतीं हैं। कुमारसैन के लाठी गांव के दिनेश भारद्वाज का कहना है कि महिलाएं गणेश चतुर्थी की सुबह नहा कर शाख के साथ रखी डाड़ी बुटी को जल स्रोत के पास रखकर गाय का पूजन कर तीज से रखे व्रत को तोड़तीं हैं।

गणेश चतुर्थी की शाम को मूंज घास की रस्सी बनाकर जंगली फूल बूं व अन्य फूलों की मालाएं बनाई जातीं हैं। स्यांज बगड़ा के संस्कृतिवेता सुरेन्द्र शर्मा का कहना है कि सुबह बहुत सवेरे गाय व बैलों के शरीर पर पठावे व गेरू पथ्थर के प्राकृतिक रंगों से गोल रैखीय चित्र बनाए जाते हैं। गले में मालाओं को पहनाया जाता है। तदुपरांत वाद्ययंत्रों की सुन्दर धुन पर भुन्जो -भुन्जो कहकर पशुओं को जंगल की ओर हांकते हैं। तेबन के शाड़ा गांव के निवासी बोधराज शर्मा का कहना है कि जितने पशु होते हैं, उसी गणना में अखरोट गेहूं की मोड़ी के साथ ग्वालों को दिए जाते हैं। यह सामग्री बकरे की खाल के थैले में डाल कर मुंह से बंधकर भुन्जो-भुन्जो कहकर हिलाया जाता है।

बड़ागांव सांगरी के अमर सिंह ठाकुर के अनुसार भुन्जो के दिन मवेशियों को चिलड़े बनाकर खिलाए जाते हैं। बड़ागांव में सुबह गाय की पूजा के बाद सभी पशुओं को चरागाह की ओर हांका जाता है। पूर्व में गाय के सम्मान में भावप्रवण गीत गाए जाते हैं। यहां ऐसा विश्वास व्याप्त है कि मवेशियों के गले में लगी सभी मालाएं चरागाह में छूट जानी शुभ मानी जाती है। सुकेत में गाय की पूजा मवेशियों के चरागाह से वापिस लौटने पर सम्पन्न होती है, जबकि शिमला के सतलुज घाटी में पूजा चरागाह भेजने से पूर्व सम्पन्न की जाती हैv सुकेत के श्याम सिंह चौहान का कहना है कि जो पशु माला सहित सबसे पहले चारागाह से घर लौटता है उसी की पूरे विधान के साथ पूजा की जाती है।

इस क्षेत्र में भुन्जो के अवसर पर मेलों का भी आयोजन होता है। बाहरी सिराज के रिवाड़ी निवासी राजेश शर्मा का कहना है कि यहां के जोगेश्वर देवता रक्षा बंधन के दिन से कभी रथारूढ़ हो जाते थे। सभी लोग मंदिर में इस शाड़ा उत्सव में रात्रि में देव दर्शन को आया करते थे, परन्तु अब केवल रिषी पंचमी को ही जगेश्वर देवता सौह में जा कर मेले का आगाज करते हैं। महिलाएं देवता पर अखरोट का वर्षण कर श्रद्धांजलि देती हैं।

रिषी पंचमी के तीसरे पहर ब्राह्मण सुहागिनें श्कड़ी को व्रत धारण कर हार श्रृंगार कर सिर पर धारण करतीं हैं। बड़ागांव सांगरी ब्रह्मेश्वर महादेव के मोतमीन ज्वाहर शर्मा पचाड़ के अनुसार पूरे वाद्ययंत्रों की धुन पर देव गीत गाती हुईं देव बावड़ी की ओर प्रस्थान करतीं हैं। वहां मिट्टी को विसर्जित कर शाख को मण्डल में रखकर मंदिर प्रांगण में पहुंचती हैं। यहां देवता के छत्र के नीचे वधुएं देव गीत गाती नृत्य करतीं हैं। तदेपरांत पहली जै की शाख् देवता को अर्पित की जाती हैं। शेष जौ की डालियों को आपस में बांटकर शुभकामनाएं दी जाती हैं। ऐसी ही परम्परा सुकेत व सिराज में भी सम्पन्न की जाती है। कोटगढ़ के लोशठा गांव में भी ब्राह्मण सुहागिनें पारम्परिक ढंग से श्कड़ी का पूजन कर पारम्परिक गीत गाती हैं। कुमारसैन में भी शाख् के विसर्जन व आबंटित करने की परम्परा है। कुमारसैन के बटाड़ा गांव की ब्राह्मण सुहागिनें यहां के अधिष्ठाता देव कोटेश्वर महादेव को सर्वप्रथम शाख् अर्पित करतीं हैं। कुमारसैन में चौथे वर्ष चार रथी यात्रा का आरम्भ भी रिषी पंचमी को होता है। उस समय बटाड़ा की ग्राम वधुएं रथारूढ़ कोटेश्वर महादेव को शाख् चढ़ाती हैं। कुमारसैन की मौगड़ा पंचायत के सिनवी गांव में भी भुन्जु मेला आयोजित होता। यहां सुबह देवता को घी का लघु कलश कम्बड़ी दी जाती है। सिनवी में भुन्जु एक दिन पूर्व गणेश चतुर्थी की रात्रि में होता है। इस क्षेत्र में देवता के सम्मान में रात्रि जागरण आवश्यक माना जाता है। यहां देवता पंदाई के प्रांगण में भुन्जु मेला होता है। उसी रात्रि समीपस्थ कांगल पंचायत के कलाड़ी नाग के मंदिर में लोग घी अर्पित कर रात्रि जागरण कर भुन्जु मनाते हैं।

इस प्रकार रिषी पंचमी की परम्परा मुख्यत: पशु पूजन की वैदिक परम्परा की अवशिष्ट है, साथ ही रिषियों की तपोभूमि होने के कारण अपने इष्ट के प्रति श्रद्धा भाव का प्रयोजन भी निहित है। चूंकि पशुधन रिषि परम्परा का अभिन्न अंग रहा है। समभवत: अभीष्ट की प्राप्ति के लिए पशु व देव पूजा की परम्परा सदियों से चली आ रही है। नि:संदेह हिमालयी परिवेश के लोकसमूह की संवेदनाएं जीव जगत के साथ बहुत गहरे जुड़ी रहीं हैंv भुन्जु का यह पर्व उन ईश्वरीय भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है।


साहित्यकार कुमारसैन शिमला