नजरों की भाषा


मनमोहन शर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

 

उन्हें जब भी हम पुकारते हैं

वो चाँद सा हमें निहारते हैं

कर गुफ्तगू नजरों ही नजरों में

खुद को सँवारते हैं 

और हमें नकारते हैं

 

उन्हें जब भी हम पुकारते हैं

वो चाँद सा हमें निहारते हैं

 

नजरें उनकी मिलते ही

सिमट जाते हम

तेज प्रकाश में पुतलियों से

नजर हटते ही फैल जाते

हवाओं में खुशबु जैसे

दे जाते वो कभी गहरे घाव

कभी नजरों ही से दुलारते हैं

 

उन्हें जब भी हम पुकारते हैं

वो चाँद सा हमें निहारते हैं

 

वो निहारे तो दिल बेचैन

न निहारे तो नहीं चैन

समझ न पाए नजरों की भाषा

रिश्तों के जाल में प्रेम की परिभाषा

इसी कशमकश में वो

कभी हमें पुचकारते हैं

हम ही पर कभी ज्यों फुंकारते हैं

 

उन्हें जब भी हम पुकारते हैं

वो चाँद सा हमें निहारते हैं

 

नजरों की भाषा पहली भाषा

पढ़ सके वो विद्वान

अक्षर पढ़ पढ़ 

हुई नि:शक्त निगाहें 

कहाँ कम हुआ अज्ञान?

समझ सके वो जब जब भाषा

खुद को सुधारते हैं

नहीं तो जब देखो

हमें दुत्कारते हैं

 

उन्हें जब भी हम पुकारते हैं

वो चाँद सा हमें निहारते हैं।

 

कुसुम्पटी शिमला-9, हिमाचल प्रदेश

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