मनमोहन शर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
काश! रातें अँधेरी न होती
उज्ज्वल होती दिन से भी बढ़कर
सब सोते अँधेरी रातों से
और मैं जागता
ज्यों जागता हूँ
अब भी पूरी रात
सन्नाटों से निरंतर करते बात
लिख छोड़ता हरेक संवाद
कविता के रूप में
रातों को चमकती धूप में
देख पाता
इंसान से डरते
तमाम सुंदर मन जीवों को
छुपा करते
इंसान के कोलाहल से जो
रातों में तब्दील हो गये
जिन के दिन
तनभेद से आहत
जिन के दिल
धनभेद, पदभेद से निरंतर
आहत आज के गरीब सा
समझ बैठे जो
अपना यही नसीब सा
तमन्ना है कि कर लूं
उन सब से जी भर बात
खिलते सूरज सी रोशनी में
पूरी रात
पहचान सके वो भी
इंसानियत भरी आँखों में
झलकता अपनापन
और शैतानों की आँखों का
खोखलापन
ताकि न हो उनको कोई धोखा
मिल जाए समझने का एक मौका
कि भले ही आदमी के
एक जैसे हैं बुत
कोई धन कोई पद के नशे में धुत
न हर आदमी शैतान होता है
कोई न कोई तो इंसान होता है
जिसमें स्वयं भगवान होता है।
कुसुम्पटी शिमला-9, हिमाचल प्रदेश
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