गायब हो गए सावन के झूले

डॉ. शम्भू पंवार, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

 

आधुनिकता की वजह से पर्व, त्यौहार, उत्सव मनाने का तरीका बदल गया है, लेकिन त्यौहारो की प्रासंगिकता आज ही बरकरार है।  वो भी एक समय था जब सावन माह के  शुरू होते ही घर, बाग -बगीचों, चौपाल व उद्यान में झूले पड़ने लग जाते थे। ग्रामीण क्षेत्रो में हरे भरे वृक्षों की भरमार होती थी, क्योंकि सावन माह में पृथ्वी का प्रकृति नयनाभिराम श्रृंगार करती है।प्रकृति के इस खुशनुमा माहौल में एक अजीब सी मस्ती व उमंग होती है। जगह जगह झूले लगे होते थे। महिलाओ और युवतियों का यह माह उमंग और उत्साह का  होता है। 

मायके में सहेलियों के संग सावन के झूले

नवविवाहिता युवती का अपना पहला सावन मायके में रहना होता है। वह अपनी सखी सहेलियों के साथ झूला झूलती मस्ती में उमंग से नाचती गाती है। प्रकृति के खुशनुमा वातावरण में एक अजीब सी मस्ती होती है। मौसम का लुफ्त लेने के लिए  हरे व लाल रंग के परिधान में सोलह सिंगार कर मस्ती व उमंग से झूलों का आनंद लेती और सावन के गीत गाती मस्ती में झूम उठती थी।  

आधुनिकता में खो गए मस्ती के झूले

बदलते परिवेश में आधुनिकता ने त्यौहार उत्सव का स्वरूप बदल दिया। गांव में अब पेड़ नही रहे ना झूले नजर आते हैं, आपसी प्यार स्नेह लुप्त हो गया। सभी इस आपाधापी में भागदौड़ की जिंदगी में अपने परिवार तक सीमित हो कर रह गए। आधुनिकता में वीडियो गेम्स, मोबाइल, टीवी संस्कृति के चलते इन झूलों की संस्कृति से दूर होते जा रहे है। त्यौहारों की परंपरा के फल स्वरुप आजकल रेडीमेड लोहे व स्टील के झूले, बांस के झूले पर झूल कर परंपरा निभाई जा रही है। ग्रामीण परिवेश में आज भी नाम मात्र की परंपरा देखने को मिल रही है। शहरों में महिला संस्थाओं द्वारा सामूहिक रूप से होटल या उद्यान में रेडीमेड झूलों पर झूल कर नाचते-गाते त्यौहार की प्रासंगिकता बरकरार रख रही है। कुछ लोग होटल में पार्टी व संगीत का आयोजन कर त्यौहार  का लुफ्त उठाते हैं।

झूलों पर कोरोना का असर

इस बार तो कोरोना महामारी के कारण गांवों व शहरों में उद्यान व होटलों के सावन के झूलों की बहार नहीं होगी। राधा कृष्ण मंदिरों में भी राधा रानी को श्री कृष्ण के हिंडोला देने की परंपरा भी निभाना मुश्किल लग रहा है। इस वैश्विक महामारी ने पर्व,त्योहारों का रंग एकदम फीका कर दिया।


पत्रकार व लेखक सुगन कुटीर, चिड़ावा।

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