डॉ. शम्भू पंवार, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
सूरज निकलते ही चिंता
सताती है कि आज
मजदूरी अच्छी मिले तो
बच्चों को भर पेट भोजन
मिल सकेगा, तपती धूप हो,
पैरों में छाले हो या बदन
में दर्द, जो भी हो...
परिवार का पेट तो भरना है
शरीर पर कपड़े फटे हो
पैरों में चप्पल ना हो, पर
परिवार को तकलीफ़ न हो
एक दिन भी मजदूरी ना हो
परिवार में फांके हो जाते हैं
मजदूर को मजूरी न मिले
तो कितना मजबूर हो जाता है, अपनी चिंता नही, परिवार का
मुंह देखता है, भूख से
बिलखते बच्चों का रूदन
दिल को चीर कर निकलता है
बहुत मजबूर महसूस करता है
पालक, कैसे निभाए
परिवार पालने का दायित्व?
है ईश्वर आप दयालु हो
आप ने जन्म दिया है
ये पेट दिया है, तो भरण पोषण
के लिए काम भी दिलाओ
बच्चों को भूखे देख कर
मैं कैसे चैन से बैठ पाऊंगा
मासूमों को बिलबिलाता देख
मैं तो जीते जी मर जाऊंगा
कितना मजबूर हूं मैं
उनको झूठी दिलासा देता हूं
ईश्वर आपकी ये कैसी लीला है
कुछ तो भर पेट व्यंजन
खाते है और कुछ, सूखी
रोटी को तरस जाते हैं
प्रभु, थोड़ी तो कृपा करो हमपर
इतना बस करम कर दो
मुझे कमाई का ज़रिया बता दो
ताकि मैं अपने परिवार का
पेट भर सकूं, कैसे क्या करूं
सोचते सोचते सो जाता हूं
सुबह उठते ही फिर इस
जद्दोजहद में घिर जाता हूं
निकल जाता हूं फिर एक
नए जोश और उमंग के साथ
कि आज अगर अच्छी मजदूरी मिलेगी
तो बच्चों को भर पेट भोजन दे सकूंगा।
चिड़ावा, नई दिल्ली