कुंवर आरपी सिंह, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर बचपन से ही अत्यंत उदार और सेवाभावी थे। उन्हें उन्हें यह करुणा-भावना अपनी धर्मनिष्ठ मां से प्राप्त हुई थी। एक दिन विद्यासागर एक गरीब छात्र को लेकर अपनी मां के पास पहुंचे और बोले-माताजी! यह गरीब छात्र फीस के पैसे ना जमा कर पाने के कारण वार्षिक परीक्षा में नहीं बैठ पाएगा, इससे इसका एक साल चौपट हो जाएगा। इसकी अगर कुछ मदद हो जाए ,तो इसका साल बच जाएगा और भविष्य बन जायेगा।
वात्सलमयी मां के पास उस समय रुपये नहीं थे। इसके बावजूद भी उन्होंने उस लड़के को लौटाया नहीं। उन्होंने गले से अपना म़गलसूत्र निकाला और उसे दे दिया। छात्र ने एक सेठ के यहाँ वह मंगलसूत्र गिरवी रख कर कुछ रुपये लिये और अपनी स्कूल की फीस जमा कर दी। उस छात्र ने प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद ट्यूशन पढ़ाकर उसने रुपये इकठ्ठा किये और सेठ से वह मंगलसूत्र वापस ले जाया आया। मंगलसूत्र लेकर वह विद्यासागर की माँ के पास पहुँचा, तथा उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उनके सामने वह मंगलसूत्र रख दिया। माँ ने कहा बेटा! इस आभूषण का नाम मंगलसूत्र है। अतः मंगल- प्रायोजन में काम आकर यह स्वयं धन्य हो गया है। मुझे अब इसकी जरूरत नहीं है। तुम बहुत योग्य छात्र हो, इसे बेचकर अपनी उच्च-शिक्षा की व्यवस्था कर लेना। मेरी ससुराल में उपहार के तौर पर मिला यह आभूषण, सार्थक हो जायेगा।
राष्ट्रीय अध्यक्ष जय शिवा पटेल संघ