ज्ञानेश पाठक, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
कुछ-कुछ ऐसा हो रहा,
इण्डिया, भारत बन रहा।
डी जे का धुन ठिठक गया,
रामायण का धुन बज रहा।
हवाई और रेल यात्रा रूक गए,
पद यात्रा का दौर चल रहा।
कुछ-कुछ ऐसा हो रहा,
इण्डिया, भारत बन रहा।
जंक फूड को जंग लग रहे,
देशी व्यंजन घर मे पक रहा।
हाथ मिलाना-गले लगना बंद है,
नमस्ते से अभिवादन चल रहा।
कुछ-कुछ ऐसा हो रहा,
इण्डिया, भारत बन रहा।
शीतल पेय अनर्गल लग रहे,
लस्सी-चाय का चलन बढ़ रहा।
पिज्जा, बर्गर बिसरा गये अब,
दाल रोटी का डंका बज रहा।
कुछ कुछ ऐसा हो रहा,
इण्डिया,भारत बन रहा।
बिग बास के दिन अब लद गये,
ज्येष्ठ भ्राता श्री भड़क रहे।
सरपट भाग रहा था मानव,
घर पर थोड़ा रम रहा।
कुछ-कुछ ऐसा हो रहा।
इण्डिया, भारत बन रहा।
जरूरते सारी सिमट गयी हैं,
थोड़े मे ही काम चल रहा।
अपने लिए तो जी ही रहे हैं,
औरों के लिए भी दीप जल रहा।
कुछ-कुछ ऐसा हो रहा।
इण्डिया, भारत बन रहा।
प्रदूषण भी जरा कम हुआ है,
गंगा, यमुना प्राकृतिक निर्मल धारा से कलकल करती बह रही है,
खुला आसमान तक रहा है।
विश्व सारा जूझ रहा है।
कुछ कुछ ऐसा हो रहा।
इण्डिया भारत बन रहा॥
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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