सत्य प्रकाश पटेल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
हमें कुर्मी समाज में एक संगठन बनाना नहीं है, बल्कि कुर्मी को एक संगठन बनाना है। आंदोलन को यदि तार्किक अंजाम तक पहुंचाना है तो संगठन द्वारा ही पहुंचाया जा सकता है। संगठन यह हमारे अस्तित्व से जुडा हुआ मामला है, इसलिए हमें संगठनशास्त्र का पता होना बहुत जरुरी है। हमारे समाज में संगठनाएँ हैं, लेकिन संगठन नहीं है। संगठन बनाना यह एक वैज्ञानिक पद्धति है और हमारा समाज संगठनशास्त्र से कोसों दूर है, क्योंकि वह संगठन शास्त्र से पूर्णतः अनभिज्ञ है।
संगठन निर्माण की आवश्यकता क्यों है ?
संगठन यह अमूर्त चीज है, इसलिए संगठन निर्माण करने की पहल केवल एक अकेला व्यक्ति ही करता है। समूह ने इकठ्ठा आकर संगठन का निर्माण किया है। ऐसा भी एक उदाहरण दुनिया के इतिहास में उपलब्ध नहीं है। विचार निर्मित समूह नहीं करता, वरन केवल एक अकेला व्यक्ति ही विचार निर्मित करता है, इसलिए तो हम अम्बेदकरवाद, माक्र्सवाद, जननायकवाद कहते हैं, क्योंकि उन विचारों के निर्माता केवल अम्बेदकर, गाँधी, माक्र्स, जननायक सरदार पटेल ही है, इसलिए उनके नामों से वह विचार जाना और पहचाना जाता है।
संगठन निर्माण की पहल एक ही व्यक्ति क्यों न करता हो, लेकिन एक व्यक्ति का कभी संगठन नहीं बन सकता। समूह से ही संगठन बनता है। जैसे संघ ने बुद्धा को निर्माण नहीं किया, तथागत बुद्ध ने संघ का निर्माण किया। सत्यशोधक समाज ने फूले का निर्माण नहीं किया, बल्कि फूले ने सत्यशोधक समाज का निर्माण किया। शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ने डा. अम्बेदकर का निर्माण नहीं किया, बल्कि डा. अम्बेडकर ने इस संगठन का निर्माण किया था।
इस परिपेक्ष्य में अब संगठन का जिसने निर्माण किया वह निर्माता महान है या संगठन महान है। बुद्ध महान है या संघ महान है। फूले महान है या सत्यशोधक समाज का संगठन महान है। बाबा साहब महान है या शेड्यूल कास्ट फेडरेशन महान है। इस परिपेक्ष्य में तो उसका जबाब यह है कि संगठन निर्माता ही संगठन से महान है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि बुद्ध, सम्राट अशोक, फूले, बाबा साहब अम्बेडकर, जननायक कर्पूरी ठाकुर अपने आप में स्वयं इतने महान होने के वावजूद भी उन्होंने संगठन क्यों बनाये तथा संगठन बनाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई, क्योंकि सबसे पहले उन्होंने जब अपने आंदोलन का लक्ष्य तय किया और उस लक्ष्य की जटिलता तथा विशालता और अपनी अकेले की क्षमता की तुलना की, तब उन्हें अहसास हुआ कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हम अकेले सक्षम नहीं हैं, इस कार्य के लिए अनगिनत लोगों की आवश्यकता है। इस कारण उन्होने संगठन का निर्माण किया। इस परिप्रेक्ष्य में अब कौन महान है? बुद्ध, फूले, अम्बेदकर या संगठन?
निःस्संदेह संगठन ही महान है, क्योंकि वे स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस कार्य को अंजाम देना किसी एक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। इसके लिए बहुसंख्यक लोगों का संगठन होना अनिवार्य है, क्योंकि बिखरा हुआ छिन्न-भिन्न समाज तो एक जमघट मात्र है। जमघट में अलग-अलग वृति के और परस्पर कुछ भी संबंध न रखने वाले लोग होते है, किंतु संगठन में एक अनुशासन होता है। संगठन के व्यक्ति परमाणु की तरह अनुशासन अपनत्व और समाज हित की संबंध सूत्र में बँधे रहते है। उनमें आपस में अत्यधिक स्नेह और आकर्षण होता है। चट्टान भारी अटूट और सुदृढ़ता से उनका संगठन इतना सुदृढ़ होता है कि उनको हथौडे से भी तोडना आसान नहीं होता, परन्तु जो संगठित नहीं होते उसका नाश शीघ्र हो जाता है।
संगठन साधन है, साध्य नहीं है। साध्य तो उद्देश्य होता है, इसलिए उद्देश्य सर्वोपरि है और उस उद्देश्य को हासिल करने के लिए संगठन साधन है। साधन काल सापेक्ष होते है, इसलिए कालानुरुप साधन बदलने पडते है। संगठन अनेक अंगो से बनता है और नेतृत्व का अंग है। नेतृत्व का अंग संगठन नहीं है। जैसे साध्य की पूर्ति के लिए संगठन साधन है, उसी प्रकार नेतृत्व भी साधन है। जिस प्रकार साध्य संगठन से ऊपर है, उसी प्रकार संगठन नेतृत्व से ऊपर है।
संगठन नेतृत्व का निर्माण नहीं करता, सिर्फ नेतृत्व उपलब्ध कराता है
संगठन अमूर्त तथा बेजान चीज है, इसलिए संगठन स्वयं संचालित नहीं होता। नेतृत्व के द्वारा ही संगठन का संचालन होता है, क्योंकि नेतृत्व यह मूर्त तथा जिंदा चीज है और कोई भी बेजान यंत्र स्वयं गतिमान नहीं होता, उसे मनुष्य बल द्वारा ही गतिमान किया जाता है। संगठन स्वयं बेजान होने के कारण वह जिंदे मानवी नेतृत्व का निर्माण नहीं कर सकता। यह एक गलत धारणा है कि नेतृत्व का निर्माण संगठन करता है। संगठन केवल नेतृत्व उपलब्ध कराता है तथा नेतृत्व का प्रबंध करता है, निर्माण की नहीं करता। नेतृत्व के गुण विकसित करने के लिए संगठन केवल अवसर, सहुलियतें तथा पोषक वातावरण उपलब्ध करा कर देता है, परन्तु इन अवसरों का सदुपयोग अपने व्यक्तित्व विकास के लिए करा लेना वह सर्वदा स्वयं उस व्यक्ति के रुचि तथा प्रतिबद्धता पर निर्भर है। जैसे संगठन सभी सदस्यों को नेतृत्व गुण विकसित करने के लिए समान अवसर उपलब्ध करा देता है, परन्तु सभी सदस्य नेतृत्व प्रदान करने के लिए करने की हैसियत नहीं रखते, परन्तु उन्ही में से कुछ ही सदस्य नेतृत्व करने की क्षमता हासिल करते है। जैसे परिवार में माता-पिता अपने सभी बच्चों को पढाई के लिए एक जैसे अवसर तथा सहुलियतें उपलब्ध करातें है, परन्तु सभी बच्चे डाक्टर या इंजीनियर नहीं बनते। उनमें से एक ही डाॅक्टर बनता है, क्योंकि उसने अकेले ने ही कडी मेहनत कर उन अवसरों तथा सहुलियतों का सही उपयोग किया है। यह बात और है कि संगठन के उपलब्ध कराये अवसरों को नकारा नहीं जा सकता है। जिस प्रकार माता-पिता ने बडी मुश्किल से उपलब्ध कराये अवसरों के हम ऋणी होते है वैसे ही नेतृत्व भी संगठन के लिए हुए उपकार का ऋणी होता है।
नेतृत्व गुण को हासिल करना यह व्यक्ति की अपनी व्यक्तिगत शक्ति होती है, जो वह अपनी क्षमता, योग्यता, कार्यक्षमता, योगदान, त्याग, समर्पण तथा परिश्रम से अर्जित करता है। यह उसकी व्यक्तिगत क्षमता है, जो किसी के द्वारा नहीं दी जा सकती है और यही संगठन शास्त्र का सिद्धांत है। व्यक्तिगत शक्ति, सामथ्र्य व क्षमता यह गुण व्यक्ति के व्यक्तित्व के साथ संलग्न होते है और वह उसके अंदर होते है। इसका संगठन के पद और हैसियत से कोई संबंध नहीं है। जैसे माक्र्स तथा डा. अम्बेदकर, इनके पास अपने संगठन का कोई पद न होते हुए भी वे समाज तथा संगठन के निर्विवाद नेता रहे है। नेतृत्व क्षमता व्यक्ति अपनी अत्युच्य दर्जे की योग्यता तथा परिश्रम के बलबूते हासिल करता है, जिसका दूसरे लोगों में अभाव होता है, इसलिए अनुयायी उसका निरंतर सम्मान करते है और उसके आदेशों पर अमल करते है। उसके व्यक्तित्व या प्रेरणादायी आचरण और प्रशंसनीय चरित्र के कारण लोग तथा अनुयायी उसके तरफ आकर्षित होते है।
संस्थापक, विश्व कुर्मी महापरिषद