राज शर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
सिंधवा माता भगवती आदिशक्ति तारा का बहुत बड़ा भक्त था, परन्तु उनका पानी ग्रहण संस्कार सुशील नाम की एक दुर्व्यवहार से युक्त कुटिल स्त्री के साथ हुआ। बहुत वर्ष बीत गए विवाह को, परन्तु उनके यहां किलकारियां नहीं गूंजी अर्थात कोई संतान नहीं हुई। माता तारा की अपार कृपा से एक दिन उनकी नगरी में एक रमता जोगी सिद्ध सन्त का पदार्पण हुआ। उन्होंने सिन्धवा की मनोदशा को जानकर माता तारा की भक्ति करने का आदेश दिया। दोनों माता भगवती तारा की उपासना नवरात्रि में करने लगे। उन्होंने यहां अष्टमी के दिन नौ कंजकाओं को कन्या पूजन हेतु आमंत्रित किया, परंतु सुशीला को विश्वास नहीं था कि इस तरह की पूजा आराधना से दुःख दूर होते हैं, क्योंकी सुशीला को यह सब पसन्द नहीं था। उसे यह पूजन भी प्रपंच लग रहा था। वह सोच रही थी कि जब आज तक हमारी कोई संतान नहीं हुई तो इस प्रपंच के कारण का संतान हो सकती है भला। भगवान श्रद्धा और विश्वास देखते हैं श्रद्धा और विश्वास जहां न हो वहां अगर निरंतर 12 वर्ष भी साधना उपासना की जाए तो भी सब व्यर्थ होकर रह जाता है। कहते हैं कि एक क्षण में भी अगर भगवान का सही पूर्ण श्रद्धा भाव से सच्चे दिल से माता तारा का ध्यान किया जाए तो वह अनंत गुना फलदायक होती है। अनेक कष्टों का निवारण करती है। कंजका पूजन के समय उसके मन में बहुत प्रकार के कूट भाव आ रहे थे, परंतु सिन्धवा सुशीला की व्यक्तिगत बात से अनभिज्ञ नहीं थे। सिन्धवा मन ही मन माता तारा से अंतर्मन प्रार्थना करने लगे कि हे मां! भगवती तारा मेरी पत्नी से अगर किसी भी तरह का कोई अपराध हो रहा हो या हुआ होगा उसे आप क्षमा करें और मेरी प्रार्थना को स्वीकार करो। मां तारा भक्तवत्सला अकारण करुणामयी भगवती सिन्धवा की करुणामयी प्रार्थना से प्रसीद गयी, जिससे उनके यहां 9 महीने के बाद एक कन्या का जन्म जन्म हुआ।
सार : भक्ति व व्यवहार में शुद्ध भाव रखे ।जिससे बड़े -बड़े कार्य भी पलभर में सिद्ध हो जाते हैं । श्रद्धा से किए गए कार्य अनंतगुणा फल दायक होते हैं ।
संस्कृति संरक्षक, आनी (कुल्लू) हिमाचल प्रदेश
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