अम्बेडकर व ज्योतिबा फुले हैं असली राष्ट्रपिता (शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र के वर्ष: 12, अंकः37, 10 अप्रैल 2016 में प्रकाशित लेख का पुनः प्रकाशन)


(सुभाष चन्द्र नेताजी), शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।



आज 2016 में भी ओबीसी के बुद्धिजीवियों और शिक्षितों को ये पता नहीं है कि महात्मा फुले और बाबा साहब ने ओबीसी समुदाय के उत्थान के लिए क्या किया है। एक बड़ा भ्रम ओबीसी समुदाय के पढ़े-लिखे शिक्षितों में फैला हुआ है कि, अछूत मानी गई महार जाति में जन्मे डा.बाबा साहब आम्बेडकर ने सिर्फ एस.सी समुदाय के उत्थान लिए ही कार्य किया है। वास्तव में बाबा साहेब आम्बेडकर ने देश के अधिकार वंचित ओबीसी, एससी, एसटी और देश की महिलाओं के अधिकारों और उत्थान के लिए आजीवन संघर्ष किया था। क्या वे राष्ट्रीय नेता नहीं है?
यह भ्रम फैलाने के पीछे मीडिया और शासन-प्रशासन में एकाधिकार जमाए बैठे जातिवादियों की बड़ी भूमिका रही है, जिसके हाथ में सार्वजनिक सरकारी और गैर सरकारी पुस्तकालयों का कारोबार रहा है, ऐसे उच्चवर्णीय संचालकों की भी बड़ी भूमिका रही है, क्यांेकि ऐसे पुस्तकालयों में राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और डा.बाबा साहेब आम्बेडकर के जीवन चरित्र की किताबें उपलब्ध नहीं कराई जाती थी। किताबें पढने का मुझे शौक होते हुए भी राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और डा.बाबा साहब के जीवन चरित्र 1990 तक पढने को नहीं मिला था।
1991 में मुझे मंडल आयोग रिपोर्ट की हिंदी किताब मिली, जिसका प्रकाशन बामसेफ संगठन ने किया था। 1991 में राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और डा.बाबा साहेब आम्बेडकर की जीवनी की दो किताबें पढने में आयी और पता चला की आधुनिक भारत के दो निर्माता महान पुरुषों के बारे में मुझे पर्याप्त जानकारी नहीं थी।
14 अप्रैल 1891 में भीमराव का जन्म मध्यप्रदेश में महू की लश्करी छावनी में हुआ था। उनके पिताजी ब्रिटिश लश्कर में सूबेदार थे। 6 दिसम्बर 1956 को दिल्ली में उनका परिनिर्वाण हुआ था। 20वी सदी में विश्व के श्रेष्ठ पांच विद्वानों में से वे 1 थे। उन्होंने अमेरिका और इंग्लेंड से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की थी।
1928 में बोम्बे सरकार ने स्टार्ट कमिटी नियुक्त कर थी, जिसमें डा.बाबा साहेब आम्बेडकर ने Other backward caste यानि कि OBC शब्द का उपयोग किया था। स्टार्ट कमिटी में बाबा साहेब ने कहा था कि जो जातियां अपरकास्ट और बैकवर्ड के बीच में आती हैं, ऐसी जातियां अन्य पिछड़ी जाति यानी कि ओबीसी हैं।
देश की संविधान सभा में सिर्फ 6 ही ओबीसी सदस्य थे, जिसकी आवाज ब्राह्मण सदस्यों ने दबा कर रख दी थी लेकिन डा.बाबा साहब के कारण ही कलम 340 का प्रावधान करना पड़ा जिनके फलस्वरूप काका कालेलकर आयोगश् (1953-55) तथा मंडल आयोग (1978-80) की रचना केन्द्र सरकार को करनी पड़ी थी। दोनों आयोग ओबीसी के लिए थे, लेकिन अफसोस है, कि ओबीसी समुदाय के 99 प्रतिशत शिक्षितों को इसके बारे में पता नहीं है।
1951 में अपने कानून मंत्री पद से इस्तीफा देते हुए पत्र में बाबा साहेब ने इस्तीफा का दूसरा कारण ओबीसी जातियों के लिए आयोग की नियुक्ति नहीं करना और ओबीसी की उपेक्षा करना बताया था। क्या ओबीसी के संवैधानिक अधिकारों को लागू करने के लिए 1947 से 2014 तक राज्य या केन्द्र सरकार के कोई मंत्री ने इस्तीफा दिया है?
डा.बाबा साहेब आम्बेडकर के इस्तीफा के कारण ही दबाव में आकर नहेरू सरकार को ओबीसी के लिए काका कालेलकर आयोगश् की रचना करनी पड़ी थी। 1952 की लोकसभा में 52 प्रतिशत से ज्यादा ओबीसी समुदाय के सांसदों सिर्फ 4.39 प्रतिशत ही थे। बाबासाहेब ही थे जिन्होंने ओबीसी ;शूद्रद्ध, एससी-एसटी ;अति शूद्रद्ध और महिलाओं के उत्थान के किया आजीवन संघर्ष किया था। उनको सिर्फ दलितों के उ(ारक के रूप में सीमित कर देना क्या एक षडयंत्र नहीं है? 11 अप्रैल को ज्योतिबा फुले और 14-अप्रैल के दिन डा.बाबा साहब आम्बेडकर की जन्म जयंती आती है। उसमें ओबीसी जातियों के बुद्धिजीवियों और शिक्षितों को अवश्य सामिल होना चाहिए, क्यों की महात्मा ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब एक सच्चे भारतीय देशभक्त थे जिन की उपेक्षा हम नहीं कर सकते।


लखनऊ


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