महाप्रलयकाल में केवल सद्ब्रह्म की सत्ता का प्रतिपादन, उस निर्गुण निराकार ब्रह्म से ईश्वर मूर्ति (सदाशिव) का प्राकट्य, सदाशिव द्वारा स्वरूपभूता शक्ति (अम्बिका) का प्रकटीकरण, उन दोनों के द्वारा उत्तम क्षेत्र (काशी या आनन्दवन) का प्रादुर्भाव, शिव के वामांग से परम पुरूष (विष्णु) का आविर्भाव तथा उनके सकाश से प्राकृत तत्वोें की क्रमशः उत्पत्ति का वर्णन.....
और शक्ति सहित परमेश्वर शिव भी पार्षदगणों के साथ वहां से अदृश्य हो गये। भगवान् विष्णु ने सुदीर्घकाल तक बड़ी कठोर तपस्या की। तपस्या के परिश्रम से युक्त भगवान विष्णु के अंगों से नाना प्रकार की जलधाराएं निकलने लगी। यह सब भगवान् शिव की माया से ही सम्भव हुआ।
महामुने! उस जल से सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया। वह ब्रह्मस्वरूप जल अपने स्पर्श मात्र से सब पापों का नाश करने वाला सिद्ध हुआ। उस समय थके हुए परमपुरूष विष्णु ने स्वयं उस जल में शयन किया। वे दीर्घकाल तक बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें रहे। नार अर्थात जल में शयन करने के कारण ही उनका ''नारायण'' यह श्रुतिसम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ। उस समय उन परमपुरूष नारायण के सिवा दूसरी कोई प्राकृत वस्तु नहीं थी। उसके बाद ही उन महात्मा नारायणदेव से यथा समय सभी तत्व प्रकट हुए। महामते! विद्वन! मैं उन तत्वों की उत्पत्ति का प्रकार बता रहा हूं, सुनों! प्रकृति से महत्तत्व प्रकट हुआ और महत्तत्व से तीनो गुण। इन गुणों के भेद से ही त्रिविध अहंकार की उत्पत्ति हुई। (शेष आगामी अंक में)