छत्रप्रभाकर............. (10) राजन्य महात्म्य


 


अथछत्रप्रभाकरः
गतांक से आगे.....अमरकोष के अनुसार मूर्धाभिषिक्त राजन्य, बाहुज, क्षत्रिय और विराज शब्द परस्पर पर्याय हैं। राज्यदान समये मूर्ध्नि अभिषिच्यते इति मूर्धाभिषिक्तः अर्थात राज्य प्रदान करने के समय जिसके सिर पर अभिषेक किया जाता है, वह मूर्धाभिषिक्त है। इससे स्पष्ट होता है छत्र या क्षत्रिय जाति का मनुष्य ही वैदिक मंत्रों से अभिषिक्त होकर राजा होने का अधिकारी है। आगे मानव धर्म शास्त्र अध्याय 7 के श्लोक में उद्धृत है, जिसमें वास्तविक राजा का प्रताप आदि वर्णित हैं।
राज धर्मान्प्रवक्ष्यामि यथावृत्तो भवेनृपः।
सम्भवश्च यथा तस्य सिद्धिश्च परमा यथा।।
ब्रा  प्राप्तेन संस्कारं क्षत्रियेण यथाविधि।
सर्वस्यास्य यथा न्यायं कर्तव्यं परिरक्षणम्।।
अराज केहि लोकेअस्मिन्सर्वतो विद्रुते भयात्।
रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानम सृजतप्रभुः।।
इन्द्रानिलयमार्काणांमग्नेश्च वरूणस्य च।
चन्द्र वित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः।।
यस्मादेषां सुरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मितो नृपः।
तस्मादभिभवत्येष सर्वभूतानि तेजसा।।
तपस्यादित्य वच्चैषां चक्षूंषिच मनांसिच।
 चैनं भुवि शक्नोति कश्चिद प्यभि वीक्षितुम्।।
सोअग्निर्भवति वायुश्च सोअर्कः सोमः सधर्मराट्।
सकुबेरः सबरूणः समहेन्द्रः प्रभावतः।।
बालोअपि नावमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः।
महती देवता हृयेषा नर रूपेण तिष्ठति।।
(क्रमशः)


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