(प्रभाकर सिंह), शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
हाल ही में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत की स्थिति बहुत खराब बताई गई है। इस सूचकांक के अनुसार दुनिया के 117 देशों में भारत 102वें पायदान पर है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत दुनिया के शीर्ष 16 ऐसे देशों में शामिल है जहां भूख की स्थिति भयावह है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और भुखमरी सूचकांक में उसका स्थान दक्षिण एशिया के देशों से भी नीचे है। भारत की रैंक 102 है, जबकि बाकी दक्षिण एशियाई देश 66वें से 94 स्थान के बीच हैं। इस सूचकांक में पाकिस्तान 94वें पायदान पर है जबकि बांग्लादेश और क्रमश: श्रीलंका 88वें और 66वें पायदान पर हैं। भारत ब्रिक्स देशों में भी सबसे पीछे है। गौरतलब है कि ब्रिक्स का सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला देश दक्षिण अफ्रीका 59वें स्थान पर है।
दरअसल इस सूचकांक में भूख की स्थिति के आधार पर देशों को शून्य से 100 अंक दिए गए हैं। इसमें शून्य अंक सवरेत्तम यानी भूख की स्थिति नहीं होने को प्रदर्शित करता है। 10 से कम अंक का मतलब है कि देश में भूख की बेहद कम समस्या है। 10 से लेकर 19.9 तक अंक होने का मतलब है कि यह समस्या यहां है। इसी तरह 20 से 34.9 अंक का मतलब भूख का गंभीर संकट और 35 से 49.9 अंक का मतलब है कि हालत चुनौतीपूर्ण है। 50 या इससे ज्यादा अंक का मतलब है कि वहां भूख की बेहद भयावह स्थिति है। मालूम हो कि इस सूचकांक में भारत को 30.3 अंक मिला है जिसका मतलब है कि यहां भूख का गंभीर संकट है।
भुखमरी से लगातार खराब हो रही देश की दशा : दरअसल भुखमरी के मामले में भारत की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। वर्ष 2014 में 55वें स्थान पर होने के बावजूद 2015 में 80वें, वर्ष 2016 में 97वें, 2017 में 100वें और अब 2019 में भारत 102वें पायदान पर खिसक चुका है। ऐसे में सवाल है कि किन कारणों से देश की दशा बेहतर नहीं हो पा रही है। वैसे तो हम खाद्यान्न और दुग्ध-उत्पादन में शिखर पर हैं। लेकिन इसके बावजूद यहां विश्व के 25 फीसद वैसे लोग निवास करते हैं जो दो जून की रोटी के मोहताज हैं।
इस नवीनतम रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन को भी एक वजह बताई गई है। कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण भूख का संकट चुनौतीपूर्ण स्तर पर पहुंच गया और इससे दुनिया के पिछड़े क्षेत्रों में लोगों के लिए भोजन की उपलब्धता और कठिन हो गई। इतना ही नहीं, जलवायु परिवर्तन से भोजन की गुणवत्ता और साफ-सफाई भी प्रभावित हो रही है। साथ ही फसलों से मिलने वाले भोजन की पोषण क्षमता भी घट रही है। इस रिपोर्ट की मानें तो दुनिया ने वर्ष 2000 के बाद भूख के संकट को कम तो किया है, लेकिन इस समस्या से पूरी तरह निजात पाने की दिशा में अब भी लंबी दूरी तय करनी होगी।
भारत में दुनिया के 40 प्रतिशत कुपोषित बच्चे : भारत की बात करें तो यह विश्व के करीब 40 प्रतिशत कुपोषित बच्चों का देश है जहां हर वर्ष लगभग 25 लाख बच्चों की जान पोषण के अभाव में चली जाती है। विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में शुमार भारत में कुपोषण की दर लगभग 55 फीसद है जबकि उप सहारा अफ्रीका के देशों में यह 27 फीसद है। अत: यह आंकड़ा हमारी सरकार की नीतियों पर सवाल खड़े करता है। हम खाद्यान्न एवं दुग्ध उत्पादन में शिखर पर खड़े तो हैं, लेकिन यहां विश्व के 25 प्रतिशत भूखे लोग भी निवास करते हैं जो दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज हैं। हमारी सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का महज 1.2 फीसद ही खर्च करती है जो दुनिया भर के देशों द्वारा इस मद में खर्च की जाने वाली रकम के लिहाज से औसतन बहुत कम है। यहां तक कि अफ्रीका के उप सहारा क्षेत्रों में भी यह प्रतिशत 1.7 के आसपास है।
विश्व के 27 प्रतिशत कुपोषित लोग भारत में रहते हैं। अभी भी भारत की आबादी का करीब एक चौथाई हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने के लिए विवश है। कुपोषण की दयनीय स्थिति के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं। मसलन पोषण कार्यक्रमों का उचित क्रियान्वयन न होना, हमारी सरकारों द्वारा गरीबी और बेरोजगारी की उपेक्षा करना, मनरेगा जैसे सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार इत्यादि। इसके अलावा गोदामों में रखा पांच करोड़ टन अनाज बिना गरीबों तक पहुंचे सड़ जाता है, लेकिन जरूरतमंदों को नसीब नहीं हो पाता। सवाल ये है कि आखिर हमारी सरकार इन जरूरतमंदों के प्रति इतनी निष्क्रिय क्यों है? प्रक्रियाओं को इतना सुलभ क्यों नहीं बनाया जाता कि गरीबों तक अनाज आसानी से पहुंच सके? फिर यहां पर एक बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि कुपोषण की भयावह होती तस्वीर के लिए आखिर जिम्मेदार कौन है?
कुपोषण की इस भयावह तस्वीर को बदलने के लिए संजीदगी से कोशिश करने की जरूरत है। मसलन आइसीडीएस (पोषण से जुड़ी एकीकृत बाल विकास सेवाएं), पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली), मनरेगा (रोजगार) आदि योजनाओं के उचित क्रियान्वयन की जरूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि कुपोषण एक जटिल समस्या है और इसका सीधा संबंध कुपोषित बच्चों के परिवारों की आजीविका से भी है। वास्तव में जब तक गरीब परिवारों के पास आजीविका का कोई साधन नहीं है तो कुपोषण मिटाना नामुमकिन है। लिहाजा कुपोषण की पहचान वाले परिवारों को जनवितरण प्रणाली एवं मनरेगा के तहत सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराना चाहिए। पोषण पुनर्वास केंद्रों एवं स्वास्थ्य केंद्रों में उपयुक्त उपकरण एवं पर्याप्त संख्या में बेड का प्रबंध करना आवश्यक है। साथ ही बाल विशेषज्ञों की उचित तैनाती पर बल देना भी जरूरी है ।
इससे इतर देखें तो हालिया कई रिपोर्ट में देश की बेरोजगारी दर को उच्च स्तर पर बताया गया है। लिहाजा सरकार को रोगजार सृजन के लिए विशेष पहल करने की जरूरत है। इससे प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो सकेगी जिससे जीवन-स्तर में सुधार होगा। शिक्षा की दशा सुधारने की जरूरत है ताकि कम उम्र बाल विवाह को रोक कर बच्चों को कुपोषित होने से बचाया जा सके। इसके अलावा, रोटी बैंक की संकल्पना को अमलीजामा पहनाने से भी इस समस्या को कम किया जा सकता है। देश के कई चुनिंदा शहरों में इस पर काम किया जा रहा है, लेकिन इसे व्यापक पैमाने पर अपनाने की जरूरत है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार 'मन की बात' में देश के बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार लाने वाले विषय पर अपनी राय व्यक्त की है। प्रधानमंत्री की चिंता वाजिब भी है, क्योंकि बच्चों के स्वास्थ्य पर एक निगाह डालें तो नए आंकड़े सचेत करते हैं कि देश को कुपोषण के खात्मे के लिए अपने प्रयासों में निरंतरता और गुणवत्ता को बढ़ाना होगा। हाल ही में यूनिसेफ ने 20 वर्षो बाद बाल पोषण पर एक रिपोर्ट जारी की है, जो बताती है कि भारत में हर दूसरा बच्चा किसी न किसी रूप में कुपोषित हैै। विश्व में पांच वर्ष से कम आयु वाले बच्चों में तीन में से एक बच्चा कुपोषित है, यानी ऐसे बच्चे या तो अल्पपोषित हैं या मोटे हैं। दो वर्ष से कम आयु वाले बच्चों में करीब एक तिहाई बच्चे खराब आहार पर जीवित हैं और उन्हें ऐसा भोजन नहीं खिलाया जा रहा जो उनके शरीर व दिमाग को तेजी से विकसित करने में मददगार हो। भारत में 35 प्रतिशत बच्चे नाटे कद के हैं, 17 प्रतिशत बच्चे कद के हिसाब से पतले हैं, जबकि 33 प्रतिशत बच्चों का वजन कम है। बच्चों की स्थिति पर यह रिपोर्ट आगाह करती है कि कुपोषण के खात्मे के लिए खराब खान-पान की आदतों में सुधार करना बहुत जरूरी है। अब ऐसे बच्चे भी कुपोषित माने जाने लगे हैं जिनका वजन अधिक है या मोटापे से ग्रस्त हैं।
खराब आहार विश्व भर में बच्चों के स्वास्थ्य को क्षति पहुंचा रहा है। गरीबी, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और भोजन संबंधी खराब चयन अस्वस्थ यानी स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले आहार की ओर ले जा रहे हैं। घटिया भोजन के नतीजे भुगतने वाले बच्चों की संख्या चिंताजनक है। विश्व भर में पांच वर्ष से कम आयु वाले बच्चों में 50 प्रतिशत बच्चों में जरूरी विटामिन और पोषक तत्वों की कमी है। हमें यह समझना होगा कि बच्चों के कुपोषण का दूरगामी प्रभाव पड़ता है। अनेक शोध रिपोर्ट से यह बात सामने आई है कि इंसान के दिमाग का 90 प्रतिशत विकास उसकी जिंदगी के पहले एक हजार दिनों में होता है। यह वही अहम दौर होता है जब यह तय हो जाता है कि कोई कैसे सोचेगा व क्या महसूस करेगा और अपनी बाल्यावस्था से लेकर बड़े होने तक क्या सीखेगा। अगर शिशु की खुराक उसके शरीर और दिमाग को तेजी से विकसित करने वाली नहीं है तो उसका खमियाजा भी भुगतना पड़ता है। ऐसे बच्चों में सीखने में कमजोर रहने, कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता और बहुत से मामलों में मौत का जोखिम बना रहता है।
स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रलय ने हाल ही में पहला समग्र राष्ट्रीय पोषण सर्वे जारी किया है जिसमें वर्ष 2016-18 के दौरान देश के 30 राज्यों व केंद्रशासित राज्यों में 19 वर्ष तक की उम्र के 1,12,000 बच्चों का मूल्यांकन किया गया था। यह राष्ट्रीय सर्वे बताता है कि सुपोषण की दिशा में कुछ हद तक प्रगति हुई है। इस सर्वे में यह बात सामने आई है कि 10-19 वर्ष आयुवर्ग में हर चौथा किशोर अपनी आयु के हिसाब से पतला है। इसी आयुवर्ग के पांच प्रतिशत किशोरों का वजन अधिक है या मोटे हैं। मुल्क में एक से चार वर्ष आयुवर्ग के 41 प्रतिशत बच्चे अनीमिक हैं। 10-19 वर्ष आयुवर्ग की 40 प्रतिशत किशोरियां अनीमिक हैं जबकि इसी आयुवर्ग के 18 प्रतिशत किशोर अनीमिक हैं। अनीमिया भारत के लिए चिंता का विषय है। देश के अधिकतर किशोरों को पर्याप्त पोषाहार नहीं मिलता है।
भारत में भोजन खपत संबंधी रुझानों से पता चलता है कि बाल आहार में प्रोटीन की बहुत कमी है और सूक्ष्मपोषक तत्वों की भी कमी है। कई दशकों से आय में वृद्धि होने के बावजूद प्रोटीन आधारित कैलोरी कम ही है। इस संदर्भ में भारत में यूनिसेफ की प्रतिनिधि डॉ. यासमिन अली हक कहती हैं कि जब सेहतमंद विकल्प उपलब्ध हों और ये किफायती हों तो बच्चे व परिवार बेहतर भोजन का चयन करते हैं। सभी बच्चों तक पौष्टिक, सुरक्षित, किफायती आहार पहुंचाना सरकार की प्राथमिकता में शुमार होना चाहिए व सरकार ऐसी कार्रवाई करती नजर भी आनी चाहिए और बच्चे, किशोर इसकी जद से बाहर आते दिखाई दें।
रिसर्च स्कॉलर इलाहाबाद विश्वविद्यालय