उत्तराखंड-रंगयात्रा: उत्कर्ष होना शेष

सुरेश नौटियाल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र। 

आपके बीच उपस्थित होकर उत्तराखंड-रंगयात्रा जैसे प्रिय विषय पर अपनी बात रखने का अवसर मिलने पर मुझे अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। यह अवश्य ही कहना चाहूंगा कि प्रकृति के महाकाव्य हिमालय के एक सुन्दर अध्याय उत्तराखंड के बारे में सोचना-विचारना तथा उसके सामाजिक-सांस्कृतिक और रचनात्मक पक्षों का अवलोकन करना स्वयं में गौरवशाली अनुभूति है। दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य का छात्र रहते हुए नाट्यशास्त्र मेरा प्रिय विषय रहा, तब भी मैं नाट्यशास्त्र का विशेषज्ञ नहीं हूं। पत्रकारिता, राजनीति, समाज-संस्कृति, पारिस्थितिकी-पर्यावरण और मानवाधिकार जैसे विषयों के लिए प्रतिबद्ध रहते हुए मैं कविता और नाटक का शिष्य मात्र हूं। और सच में कहूं तो यहां बैठे नाट्यशास्त्र के विशेषज्ञों के सम्मुख अपना वक्तव्य रखने में संकोच की अनुभूति भी मुझे हो रही है। यह प्रस्तुतीकरण स्थूल रूप में समग्र उत्तराखंडी थियेटर पर मेरी समझ का वक्तव्य तो हो सकता है, पर वास्तव में यह दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में गढ़वाली थियेटर के बारे में अधिक है।

मूल विषय पर आने से पहले यह कहना आवश्यक है कि रंगमंच और रंगकर्म मेरे लिए क्या है! आपकी तरह मेरा भी मानना है कि जिस प्रकार जीवन को जीना कला और साधना है, ठीक उसी प्रकार रंगकर्म भी है, पर रंगकर्म जैसी कला, साधना के बिना संभव नहीं है। रंगमंच कंपोजिट आर्ट होने के नाते अपने छात्रों को अभिनय के अतिरिक्त काव्य, गायिकी, नृत्य, ललितकला, मंचसज्जा और वस्त्र-विन्यास इत्यादि का ज्ञान भी देता है। मातृभाषा में रंगकर्म हो तो वह भाषाई ज्ञान के नए आयाम खोलने के साथ-साथ स्पीच, डिक्शन, शब्दकोश, ध्वनि-नियंत्रण का प्रशिक्षण भी देता है। रंगकर्म व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए भी आवश्यक है। यह स्थानीय परिवेश, भाषा-बोली, समाज और संस्कृति को समझने की सही दृष्टि भी विकसित करता है। यह संस्कृति के साथ-साथ सामाजिक परस्परता को भी बल देता है। रंगमंच मनुष्य को अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों एक साथ बनाता है, अर्थात यह भीतर और बाहर के संसार को बेहतर ढंग से बूझने की समझ देता है। यह परिवेश विशेष की सूक्ष्मताओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की बौद्धिकता प्रदान करता है। यह ऐसी अनुभूति है, जो हमारे विचारों, हमारी दृष्टि, हमारे चिंतन और हमारी क्रियाशीलता को गति और नए आयाम प्रदान करता है। रंगमंच मौखिक कला होने के नाते प्रेक्षक के साथ ऐसा प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करता है, जो किसी अन्य कला में संभव नहीं है। यह कलाकारों में आत्मविश्वास भरने के अलावा उनमें टीमवर्क की भावना जगाकर उनके व्यक्तित्व को भी निखारता है, इसलिए रंगमंच की शिक्षा-दीक्षा बच्चों को स्कूलों में आरंभ से ही दी जानी चाहिए और इसे स्कूली पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया जाना चाहिए।

उत्तराखंड की भाषाओं में हो रहे रंगकर्म पर चर्चा से पहले यह रेखांकित करना आवश्यक है कि भाषा क्या है और कैसे यह मनुष्य को प्रभावित करती है। भाषा का महत्व रेखांकित होगा तो भाषा विशेष का थिएटर भी रेखांकित होगा, ऐसा मेरा मानना है। प्रत्येक भाषा शताब्दियों से संचित लोक-व्यवहार, परस्परता, भौगोलिक और जलवायु की परिस्थितियों, वातावरण, ज्ञान और अध्यात्म को सम्पूर्ण जीवनदर्शन के रूप में प्रस्तुत करती है। भाषा की विशिष्ट सूक्ष्मतायें होती हैं, उसके अपने मुहावरे होते हैं, जिनका न तो किसी अन्य भाषा में अनुवाद किया जा सकता है और न ही उसे किसी और रूप में अक्षरश: प्रस्तुत किया जा सकता है और किसी भी भाषा के नाटकों पर यही सिद्धांत लागू होते हैं।

पर्वतीय उत्तराखंड की सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं, रीति-रिवाजों, लोक-कलाओं, स्थापत्य-कलाओं, रहन-सहन, भाषाओं और पहनावों में विविधता तो है; पर समग्ररूप में उनमें विशिष्ट प्रकार की एकरूपता और परस्परता है। इन तत्वों को सदैव परिभाषित नहीं किया जा सकता। हां! इनकी अनुभूति अवश्य की जा सकती है। पर्वतीय उत्तराखंड की यह विशिष्ट एकरूपता और परस्परता ही उसे विशिष्ट सांस्कृतिक और भाषाई इकाई बनाती हैं। 

यहां गढ़वाली नाटकों पर विशेषरूप से बातचीत हो रही है, इसलिए यह स्मरण करना आवश्यक है कि गढ़वाल में नाटकों से पहले परंपरागत मनोरंजन के माध्यमों या साधनों में पांडवनृत्य, लांग, भैलानृत्य, ऋतुनृत्य, चौंफला, झुमेलो, छोपती, तांदीनृत्य, थड्या और स्वांग जैसी अनेक विधाएं रही हैं। समय के साथ-साथ रामलीला ने भी जनमानस में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया। नृत्य-नाटिकाओं में पौराणिक आख्यानों, कथाओं और किंवदंतियों को आधार बनाया जाता रहा है, इसी के परिणामस्वरूप उत्तराखंडी रंगमंच का मूलस्रोत वहां के धार्मिक आख्यानों, उत्सवों, कौथिगों इत्यादि में देखा जा सकता है। पांडव-नृत्य को तो गढ़वाली रंगमंच का आदिस्थ ही कहा जा सकता है, क्योंकि इस नृत्य में नाटक के अनेक तत्व यथा संघर्ष, गतिशीलता, कथा-प्रवाह, चरित्र-चित्रण स्वाभाविक रूप में विद्यमान हैं। पांडव-नृत्य के साथ बजने वाले वाद्य-यंत्र ढोल-दमाऊं सहज ही नाटकीयता का वातावरण पैदा कर देते हैं. जागर कथाओं में भी इस तरह का वातावरण डौंर-थाली और हुड़के जैसे वाद्य-यंत्र पैदा करते हैं।

गढ़वाली नाटकों का जैसे-जैसे विकास हुआ, उनमें स्थानीय जन-जीवन और  उसके धार्मिक पक्ष के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक पक्ष भी सामने आने लगे। देशव्यापी नाट्य-आंदोलन का प्रभाव गढ़वाली नाट्य-परंपरा पर सहज ही देखा जा सकता है। प्रथम विश्व-युद्ध के बाद देश में पारसी थियेटर ने जोर पकड़ा तो गढ़वाली थियेटर पर भी इसका प्रभाव पड़ा और बीस-तीस के दशक के आते-आते पारसी थियेटर के नमूने पर श्रीकृष्णावतार, सत्यवादी हरिश्चंद्र, दानवीर कर्ण और धर्मराज युधिष्ठिर जैसे पौराणिक विषयक नाटक खेले जाने लगे। कुल मिलाकर शीतऋतु में रामलीला का आयोजन होता तो ग्रीष्मऋतु में नाटकों का मंचन। गढ़वाली का पहला नाटक लिखने का श्रेय भवानीदत्त थपलियाल को जाता है। उन्होंने 1911 में जय-विजय नाटक लिखा और तीन वर्ष बाद 1914 में प्रह्लाद नाटक लिखा। प्रह्लाद नाटक की लोकप्रियता बराबर बनी रही और 1930 में प्रह्लाद नाटक को प्रकाशित कर दिया गया। उन्हीं दिनों फरवरी 1930 में घनानंद बहुगुणा का नाटक समाज लखनऊ से छपा। इसके दो साल बाद उत्तराखंड प्रेस देहरादून से विश्वंभरदत्त उनियाल का नाटक “बसंती” प्रकाशित हुआ. वर्ष 1934 में ईश्वरीदत्त जुयाल ने कराची से अपना नाटक परिवर्तन छपवाया। इसके दो वर्ष बाद 1936 में टिहरी रियासत के वाणीभूषण शर्मा ने अपना नाटक प्रेम सुमन प्रकाशित किया। वर्ष 1932-33 में टिहरी के शेमियर ऑफीशियल ड्रामैटिक क्लब ने चार मित्रों द्वारा लिखी नाटिका पांखु का मंचन किया और 1936 में उत्तराखंड प्रेस देहरादून ने इसे छापा। तदुपरांत 1940 में भगवतीप्रसाद पांथरी के नाटक भूतों की खोह और अध:पतन सामने आए। उनके नाटकों में स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में पर्वतीय लोगों की मनोदशा का चित्रण विशेष है।

पचास का दशक गढ़वाली नाटकों के लेखन की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा। इसी दशक में जीत सिंह नेगी का नाटक भारी भूल प्रकाशित हुआ और दिल्ली, मुम्बई और देहरादून में इसका मंचन अनेक बार हुआ। जीत सिंह नेगी ने मलेथा की कूल नामक नाटक भी लिखा तथा बलदेव प्रसाद सती के गीत रामी को आधार बनाकर गीत-नाटिका भी लिखी। उनके अलावा केशव ध्यानी ने मालू सौकार और कखी नाक न, कखी सोनु न तथा मदन डोभाल ने खबेश जैसे नाटक लिखे। जीत सिंह नेगी का नाटक भारी भूल दिल्ली में सर्वप्रथम 1950 में खेला गया और पहली बार दो महिला कलाकारों – कांता थपलियाल और कमला थपलियाल – ने इसमें अभिनय किया। जीत सिंह नेगी के ही दूसरे नाटक मलेथा की कूल को भी दर्शकों ने काफी सराहा। श्रीधर जमलोकी का नाटक सीता परित्याग और विशालमणि शर्मा के नाटक श्रीकृष्ण और भक्त ध्रुव भी गढ़वाल में मंचित हुए।

पचास के ही दशक में गढ़वाली रंगमंच को दूसरा महत्वपूर्ण मोड़ ललितमोहन थपल्याल ने दिया। इनके चार एकांकी – खाडू लापता, अछर्यूं कू ताल, घर जवैं और एकीकरण – दिल्ली और दिल्ली के बाहर छठे दशक तक लोकप्रिय रहे। ललितमोहन थपल्याल ने 1958 में प्रह्लाद नाटक के एक भाग को रूपांतरित करके दुर्जन की कछड़ी नाम से उसका मंचन किया। ऐसा करके ललितमोहन थपल्याल ने यह दिखाने का प्रयास किया कि उत्तराखंडी भाषाएं नाटक के लिए अत्यंत सप्राण और सशक्त माध्यम हैं। ललितमोहन थपल्याल ने गढ़वाली रंगमंच की संभावनाओं का संकेत भी स्पष्ट रूप में दिया। इनके नाटकों में जो सबसे महत्वपूर्ण गुण है, वह है इनका भाषिक सौंदर्य। उनके नाटकों में हास-परिहास के माध्यम से समाज की विसंगतियां भी तीखे रूप में सामने आती हैं। ललितमोहन थपल्याल के नाटकों से अन्य लोगों ने भी प्रेरणा ली और गिरधारी प्रसाद थपलियाल कंकाल ने इन भि चल्द, वीरेन्द्र मोहन रतूड़ी ने एक जौ अगनै तथा किशोर घिल्डियाल ने रग-ठग, दूणों जनम और कीडू की ब्वे जैसे नाटक लिखे। 

इस बीच भगवती प्रसाद चंदोला, हरिदत्त भट्ट शैलेश, डॉ. गोविंद चातक, अबोधबंधु बहुगुणा, आचार्य पुरुषोत्तम डोभाल, दामोदर प्रसाद थपल्याल, सुरेन्द्र सिंह रावत और गोविंदराम पोखरियाल के नाटक भी सामने आए, लेकिन इनके बारे में अधिक जानकारी नहीं मिल पाई है। कन्हैयालाल डंडरियाल ने भी सीता स्वयंबर और कंसवध जैसे नाटक लिखे।

इसके बाद गढ़वाली रंगमंच में तीसरा महत्वपूर्ण मोड़ आया सत्तर-अस्सी के दशक में राजेन्द्र धस्माना के नाटकों के साथ. राजनीतिक व्यंग्य और सम-सामयिक समस्याओं पर पैनी दृष्टि और पकड़ का उन्होंने परिचय दिया। गढ़वाली रंगमंच को आधुनिक रंगमंच की अपेक्षाओं के अनुरूप ढालने में राजेन्द्र धस्माना का योगदान विशेषरूप से उल्लेखनीय है। अपने पहले ही नाटक जंकजोड़ से उन्होंने गढ़वाली रंगमंच को पुरानी लीक से हटाकर आगे बढाया और उसे समाज की समसामयिक परिस्थितियों से जोड़कर देश के भाषी थियेटर के समक्ष लाने में योगदान किया। पहाडी गांव के विकास के लिए शहरी लोगों की चिंता के ताने-बाने पर कसा राजेन्द्र धस्माना के दूसरे नाटक अर्द्धग्रामेश्वर के अनेक प्रदर्शन जागर और द हाई हिलर्स ग्रुप जैसी अनेक रंगमंडलियों ने कई शहरों में किए। कहा जा सकता है कि अर्द्धग्रामेश्वर नाटक गढ़वाली थियेटर में माइलस्टोन अर्थात मील का पत्थर है। इस नाटक का हिंदी में भी अनुवाद किया गया। धस्माना ने भवानीदत्त थपलियाल के प्रह्लाद नाटक को भी अपडेट किया और कन्हैयालाल डंडरियाल की रचना कंसवध का पुनर्लेखन राजनीतिक व्यंग्य कंसानुक्रम के नाम से किया। महेश एलकुंचवार के एक मराठी नाटक का पैसा न ध्यल्या, गुमान सिंह रौत्यल्या के नाम से भी धस्माना ने रूपांतरण किया। जै भारत, जै उत्तराखंड उनका अंतिम मंचित नाटक है। उनके नाटक भड़ भंडारी माधो सिंह का अभी तक मंचन नहीं हो पाया है।

गढ़वाली नाटकों को मित्रानंद मैठाणी के लेखन से भी बल मिला। उन्होंने खौल्या, च्यूं, चौकड़ी, फुलमुंडी सासु जैसे नाटकों का लेखन और आकाशवाणी से प्रसारण किया। पारेश्वर गौड़ का नाटक औंसी कि रात, स्वरूप ढौंडियाल के नाटक अदालत और मंगतू बौल्या और उमाकांत बलूनी का नाटक बांजि गौड़ी भी महत्वपूर्ण गढ़वाली नाटक हैं। अस्सी के दशक में ही राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के फेलो श्रीश डोभाल ने उत्तराखंड के विभिन्न नगरों-कस्बों में रंग-कार्यशालाएं आयोजित कीं और शैलनट नामक नाट्यमंडली का गठन उत्तराखंड के विभिन्न नगरों में किया। कला दर्पण उत्तरकाशी और कला दर्पण दिल्ली जैसी अनेक रंगमंडलियां का योगदान भी महत्वपूर्ण है, जिन्होंने पर्वतीय विषयों पर हिंदी में नाटक आयोजित किये। कला दर्पण दिल्ली की प्रस्तुतियां – बीस सौ बीस, ढोल के बोल और नीली छतरी – कुछ ऐसे उदाहरण हैं। सुभाष रावत द्वारा लिखित और सुवर्ण रावत द्वारा निर्देशित बीस सौ बीस नाटक उत्तराखंड राज्य निर्माण की पृष्ठभूमि पर है। 

नब्बे के दशक में जागर ने गढ़वाली नाट्य आन्दोलन को आगे बढाने का प्रयास किया। राजेन्द्र धस्माना के नाटक पैसा न ध्यला, गुमान सिंह रौत्यला के मंचन से इस आन्दोलन को बल मिला, लेकिन इस दौर में असल काम द हाई हिलर्स ग्रुप ने किया। इस ग्रुप ने जो नाटक खेले, उनमें उमाकांत बलूनी का नाटक बांजी गौडी (1987), डॉ. कुसुम नौटियाल का नाटक लिंडरिया छोरा (1991), धीरज नेगी का नाटक जैसिंह काका (1992), राजेन्द्र धस्माना के नाटक पैसा न ध्यला, गुमान सिंह रौत्यला (1992) और जै भारत, जै उत्तराखंड (1995) ललितमोहन थपल्याल का नाटक चमत्कार (1999), दिनेश बिजल्वाण और मोहन बिष्ट का नाटक कैकु ब्यौ, कैकु ख्यौ (2001) और दिनेश बिजल्वाण का नाटक पल्टनेर चन्द्र सिंह (2002) प्रमुख रहे। 1974 में स्थापित उदंकार संस्था ने 1986 तक मदन डोभाल के नाटक खबेश, एचएस रावत के नाटक अब दिख्या तब और कुज्यणि क्य होंद, स्वरूप ढौंडियाल के नाटक अदालत और मंगतू बौल्या, राजेन्द्र धस्माना के नाटक जंकजोड़, मोहन बिष्ट के नाटक द्यूर भौज और ललित केशवान के नाटक हरि हिंदवाण का मंचन किया। 1998 में गजेन्द्र नौटियाल ने फुंडफूका नामक रेडियो नाटक लिखा। प्रज्ञा आर्ट्स ने 2002 में दिल्ली में स्वरूप ढौंडियाल के गढ़वाली नाटक अदालत का मंचन लक्ष्मी रावत के निर्देशन में किया।

संक्षेप में कह सकते हैं कि अस्सी के दशक में गढ़वाली रंगमंच में आयी शिथिलता को सुरेश नौटियाल के नेतृत्व में स्थापित संस्था द हाई हिलर्स ग्रुप ने तोड़ा। जैसा कि कहा जा चुका है, इस रंगमंडली ने 1983 में पर्वतीय पलायन की थीम पर आधारित सुरेश नौटियाल के हिंदी नाटक एक और आयाम और 1986 में राजेन्द्र धस्माना के नाटक अर्द्धग्रामेश्वर से शुरुआत कर 2002 तक अनेक नाटक खेले। विनोद रावत के नेतृत्व वाली संस्था उत्तराखंड दर्शन ने 1987 और 1989 में दिल्ली सर्वप्रथम कौथिग का आयोजन कर उत्तराखंडी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को वृहत्तर रूप दिया। पिछले कुछ वर्षों से पर्वतीय सांस्कृतिक संस्था ने महाकौथिग के नाम से कौथिगों की इस परंपरा को आगे बढ़ाने का काम शुरू तो किया है, पर इसके परिणाम बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं हैं, क्योंकि ये समारोह अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं और इस सांस्कृतिक अभिव्यक्ति से नाटकों को दूर रखा गया है।

दिल्ली और इसके आस-पास पर्वतीय कला केंद्र और पर्वतीय लोककला मंच जैसी अग्रणी संस्थाओं ने कुमाऊंनी भाषा में अनेक नाट्य प्रस्तुतियां की हैं। तब भी, कुमाऊंनी भाषा में नाटक कम खेले गए हैं। जहां तक स्मरण होता है, दिल्ली में सर्वप्रथम 1983 में आदर्श कला संगम ने पारेश्वर गौड़ द्वारा लिखित गढ़वाली नाटक के कुमाऊंनी अनुवाद अमुसी की रात का मंचन कान्हा पंत के निर्देशन में किया। पर्वतीय कला केंद्र ने कुमाऊंनी भाषा में राजुला मालूशाही, अजुआ बफौल, हरुहीत, रामी जैसी प्रस्तुतियां दीं। पर्वतीय लोककला मंच ने कगारै आग, आछरी माछरी, राज्य एक स्वप्न, बार-मासा जैसी हिंदी और कुमाऊंनी प्रस्तुतियां दीं। कुमाऊंनी में ऋतु रैण संगीत नाटक की प्रस्तुति भी की गयी। राज्य एक स्वप्न तो कुमाऊंनी और गढ़वाली दोनों सहोदर भाषाओं में था। 

कुमाऊंनी थियेटर में बृजेन्द्रलाल शाह, मोहन उप्रेती और बीएम शाह ने अपनी विभिन्न प्रस्तुतियों में कुमाऊंनी लोक-कलाओं का इस्तेमाल किया। संगीतमय नाट्य-प्रस्तुतियों के लिए विशेषकर पर्वतीय कला केंद्र को याद किया जाता रहेगा। राजुला मालूशाही, अजुआ बफौल, भाना गंगनाथ, जीतू बगड्वाल, रामी, हरुहीत, गोरी धाना, रसिक रमौला, और हिलजात्रा जैसी सुन्दर रचनाओं के लिए मोहन उप्रेती और बृजेन्द्रलाल शाह का स्मरण सदैव किया जाएगा। पर्वतीय उत्तराखंड की कलाओं को एक नयी पहचान देने में भी मोहन उप्रेती और बृजेन्द्रलाल शाह का उल्लेखनीय योगदान रहा है।

जहूर आलम के नेतृत्व वाली नैनीताल की रंगमंडली युगमंच ने कुमाऊं की लोकसंस्कृति के पक्ष को 2004 के आस-पास होली थियेटर नामक कुमाऊंनी प्रस्तुति से अभिव्यक्ति दी। इस ग्रुप ने कुमाऊं की पृष्ठभूमि पर आधारित हिमांशु जोशी के उपन्यास कगार की आग पर आधारित इसी नाम से हिंदी में नाटक किया। लखनऊ में इस उपन्यास पर आधारित कुमाऊंनी नाटक कगारै आग खेला गया, जो नवीन जोशी ने लिखा था। बाद में यह नाटक दिल्ली में कुमाऊंनी और हिंदी में खेला गया और हेम पंत ने इसका कुमाऊंनी में अनुवाद किया। इस नाटक का रेडियो रूपांतरण भी किया गया और दूरदर्शन के लिए हिंदी में फिल्म भी बनी। लखनऊ स्थित आंखर नामक संस्था ने अनेक प्रस्तुतियां कुमाऊंनी में दीं। इनमें गोविंदबल्लभ पंत का नाटक मोटरगाड़ी प्रमुख था। पीयूष पांडे में ही अधिकतर प्रस्तुतियां लखनऊ में हुयीं।

विद्याधर श्रीकला श्रीनगर गढ़वाल ने 2011 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली में महाभारत के एक प्रसंग पर आधारित चक्रव्यूह का मंचन प्रो. दाताराम पुरोहित के निर्देशन में किया। इसी कार्यक्रम में श्रीश डोभाल के निर्देशन में पांडवों के रणकौशल पर आधारित रचना गरुड़व्यूह का मंचन किया गया तथा डॉ. सुवर्ण रावत के निर्देशन में उत्तरकाशी जनपद की रवाईं घाटी की प्रस्तुति पांडवनृत्य का मंचन कला दर्पण ग्रुप ने इस आयोजन में किया। इसी आयोजन में ओम पंच केदार लोक कला मंच ने आचार्य कृष्णानंद नौटियाल के निर्देशन में अभिमन्यु के चक्रव्यूह के सातवें द्वार के घटनाक्रम पर आधारित प्रस्तुति कमलव्यूह और प्रो. दाताराम पुरोहित के निर्देशन में पांडु के श्राद्ध पर आधारित प्रस्तुति गैंडा का मंचन किया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 2011 में आयोजित इस पूरे महाभारत उत्सव में उत्तराखंड का सांस्कृतिक और लोककला पक्ष अत्यंत मुखर ढंग से सामने आया था। वर्ष 2015 में शैलनट रुद्रपुर ने कुमाऊंनी में भस्मासुर नामक नृत्य-नाटिका उषा टम्टा के निर्देशन में मंचित की। हालांकि इस संस्था ने अपना मुख्य फोकस हिंदी थियेटर पर रखा है। इन प्रस्तुतियों से इतर आज उत्तराखंडी और खासकर गढ़वाली थिएटर पिछड़ सा गया है। पिछले लगभग दो दशक से दिल्ली जैसे महानगर में नाटकों का मंचन लगभग बंद सा हो गया था, पर इस लंबी चुप्पी को कालिंका चैरिटेबल ट्रस्ट ने उत्तराखंड नाट्योत्सव-2015 के माध्यम से तोड़ा। इस नाट्योत्सव में प्रधानपति जैसी सामाजिक समस्या पर सुरेश नौटियाल के गढ़वाली नाटक फुंद्या पदान अर चखुलि प्रधान, शंभुदत्त साहिल और राजीव शर्मा के कुमाऊंनी नाटक अदपुर तिपुर और डॉ. दाताराम पुरोहित के मुखौटा नृत्य-नाटक बुढदेवा दिल्ली में का मंचन किया गया। 

दिल्ली और उत्तराखंड में पहले से लेकर अब तक जागर, पर्वतीय कला केंद्र, द हाई हिलर्स ग्रुप, पर्वतीय लोक कला मंच, उदंकार, शैलनट, युगमंच, कला दर्पण, विद्याधर श्रीकला जैसी संस्थाओं के साथ-साथ राजेन्द्र धस्माना, मित्रानन्द कुकरेती, ललित केशवान, प्रेमलाल भट्ट, श्रीश डोभाल जहूर आलम, नईमा उप्रेती, प्रो. दाताराम पुरोहित, हेम पंत, गंगादत्त भट्ट, हेम पंत (रुद्रपुर), वीएन भट्ट, दीपक मेहता, होशियार सिंह रावत, हरि सेमवाल, डॉ. सुवर्ण रावत, विनोद रावत, विमल बहुगुणा, बलराज नेगी, बृजमोहन शर्मा, डॉ. कुसुम नौटियाल, खुशहाल सिंह बिष्ट, दिनेश बिजल्वाण, रमेश ठंगरियाल,  सुशीला रावत, कुसुम बिष्ट, संयोगिता पंत-ध्यानी, कुसुम चौहान, लक्ष्मी रावत और मेरे जैसे अनेक रंगकर्मी स्वयं या अथवा अपने-अपने ग्रुपों के माध्यम से पहाडी थियेटर को ज़िंदा रखने के लिए प्रयासरत हैं। प्रो. दाताराम पुरोहित ने तो उत्तराखंड के थियेटर में धार्मिक कर्मकांड की महत्ता पर यूनिवर्सिटी ऑव हेडेलबर्ग के प्रोफ़ेसरों के साथ भी काम किया है। आशा है कि यह जो नयी गति बनी है, वह बनी रहेगी और उत्तराखंडी रंगकर्म आगे बढेगा।

वैश्वीकरण और बाजारवाद की ताकतें मजबूत होने के कारण हमारी अपनी भाषाएं सही प्रकार से फल-फूल नहीं पा रही हैं। दूसरी ओर जो भाषाएं व्यापार की भाषाएं हैं, उनका वर्चस्व बराबर बढ़ता जा रहा है। उदाहरण के लिये अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेज़ी तथा भारत के एक बडे हिस्से में हिंदी के व्यापक व्यावसायिक उपयोग ने क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के लिये स्पेस काफी कम कर दिया है। यह तब हो रहा है, जब संस्कृति के अतिरिक्त भाषा और साहित्य ही ऐसी विधाएं हैं, जो किसी भी समाज को जीवंत बनाये रखती हैं। भाषा और साहित्य के साथ-साथ संस्कृति ही व्यक्ति विशेष को नयी ऊर्जा देती हैं और सामाजिक जुडाव को भी प्रगाढ बनाती हैं। इनके बिना समाज का कोई महत्व नहीं। ऐसे में आवश्यक है कि इन भाषाओं में रंगकर्म भी प्रबल और सबल हो। यदि ऐसा नहीं होगा तो दुनिया की 600 से ज्यादा भाषाओं की तरह उत्तराखंड की जो पहाड़ी भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं, उन्हें बचाया नहीं जा सकता है।

उत्तराखंड की भाषाओं को राजकीय संरक्षण की भी आवश्यकता है। सरकार को चाहिये कि राज्य की पर्वतीय भाषाओं के संरक्षण के लिये संवैधानिक अधिकारप्राप्त अकादमियां बनाये। ठीक वैसे ही, जैसे केंद्रीय स्तर पर संगीत-नाटक अकादमी और साहित्य अकादमी हैं। हेमवतीनंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के साथ-साथ अब उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय उत्तराखंडी थियेटर पर काम कर तो रहे हैं, पर इन प्रयासों को शासकीय संरक्षण से ठोस रूप दिया जाना आवश्यक है। उत्तराखंडी भाषाओं में थिएटर होता रहे, इसके लिए आवश्यक है कि राज्य की स्थानीय भाषाएं बची रहें। अग्रणी रंगकर्मी हेम पंत बताते हैं कि दिल्ली महानगर में जब पहली बार कुमाऊंनी नाटक अमूसी की रात खेला गया तो गढ़वाली भाषी अभिनेत्री संगोगिता पंत को कुमाऊंनी सिखाई गयी और तब जाकर नाटक हो पाया। उन्हीं के अनुसार कगार की आग पहली बार हिंदी में इसलिए करना पड़ा, क्योंकि कुमाऊंनी बोलने वाले कलाकारों का अभाव था। हेम पंत की यह चिंता समसामयिक है कि भाषाई ज्ञान न होने या कम होने से खासकर कुमाऊंनी नाटक परंपरा संतोषजनक ढंग से आगे नहीं बढ़ पायी है। हम सब मिलकर इस बारे में सोचें।

अंत में इतना ही कि उत्तराखंडी थिएटर का अभी उत्कर्ष होना शेष है। यह तब होगा जब गढ़वाली के साथ-साथ कुमाऊंनी, जौनसारी और अन्य बोली-भाषाओं में बराबर नाटक लिखे जाते रहेंगे। और यह तब होगा जब रंगकर्म को सांस्कृतिक आंदोलन का स्वरूप दिया जाएगा।

संदर्भ:

1. जॉन रसेल ब्राउन की पुस्तक इफेक्टिव थियेटर 
2. डॉ. सरला चंदोला की पुस्तक उत्तराखंड का लोक साहित्य और जनजीवन
3. दीवान सिंह बजेली की पुस्तक मोहन उप्रेती: द मैन एंड हिज आर्ट
4. जागर, द हाई हिलर्स ग्रुप, उदंकार, पर्वतीय लोक कला मंच, कला दर्पण, उत्तराखंड दर्शन, प्रज्ञा आर्ट्स, पर्वतीय कला केंद्र, आदर्श कला संगम, गढ़वाल साहित्य कला समाज और विभिन्न संस्थाओं की स्मारिकाएं
5. कालिंका चैरिटेबल ट्रस्ट की उत्तराखंड नाट्योत्सव-2015 स्मारिका के साथ-साथ इस स्मारिका में प्रकाशित रंगकर्मी हरि सेमवाल और शिक्षाविद् अनीता नौटियाल के लेख 
6. उत्तरायणी संस्था की स्मारिका-2000 में सत्यप्रसाद रतूड़ी का लेख गढ़वाली नाटक तब और अब
7. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र द्वारा महाभारत की लोक विधाओं पर केंद्रित 2011 के कार्यक्रम जय उत्सव के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका 
8. रंगकर्मियों -- डॉ. सुवर्ण रावत (कला दर्पण दिल्ली), हेम पंत (पर्वतीय लोककला मंच), दिनेश बिजल्वाण (द हाई हिलर्स ग्रुप) और हेम पंत (शैलनट रुद्रपुर) – के इनपुट. 


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