भगवान् शिव का गंगावतरण तीर्थ में तपस्या के लिए आना, हिमवान द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार उनका उस स्थान पर दूसरों को न जाने देने की व्यवस्था करना
शम्भु ने अपने मन को एकाग्र करने के लिए तप करने का विचार किया। नन्दी आदि कुछ शान्त पार्षदों को साथ ले वे हिमालय के उत्तम शिखर पर गंगावतार (गंगोत्तरी) नामक तीर्थ में चले आये, जहां पूर्वकाल में ब्रह्मधाम से च्युत होकर समस्त पाप राशि का विनाश करने के लिए चली हुई परम पावनी गंगा पहले-पहल भूतल पर अवतीर्ण हुई थीं। जितेन्द्रिय हर ने वहीं रहकर तपस्या आरम्भ की। वे आलस्यरहित हो चेतन, ज्ञानस्वरूप, नित्य, ज्योतिर्मय, निरामय, जगन्मय, चिदानन्दस्वरूप, द्वैतहीन तथा आश्रमरहित अपने आत्मभूत परमात्मा का एकाग्रभाव से चिन्तन करने लगे। भगवान् हर के ध्यानपरायण होने पर नन्दी-भृंगी आदि कुछ अन्य पार्षदगण भी ध्यान में तत्पर हो गये। उस समय कुछ भी प्रथमगण परमात्मा शम्भु की सेवा करते थे। वे सब-के-सब मौन रहते और एक शब्द भी नहीं बोलते थे। कुछ द्वारपाल हो गये थे।
इसी समय गिरिराज हिमवान् उस औषधि बहुल शिखर पर भगवान् शंकर का शुभागमन सुनकर उनके प्रति आदर की भावना से वहां आये। आकर सेवकों सहित गिरिराज ने भगवान् रूद्र को प्रणाम किया, उनकी पूजा की और अत्यन्त प्रसन्न हो हाथ जोड़ उनका सुन्दर स्तवन किया। (शेष आगामी अंक में)