डॉ.शैलेश शुक्ला, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
कहते हैं कि इंसान की असली काबिलियत तब नजर आती है जब वह किसी कंपनी में काम करता है, लेकिन मेरी तो दिली तमन्ना है कि मैं उस कंपनी में काम न करूँ, बल्कि वहाँ का निदेशक (कार्मिक) यानी Director (कार्मिक) बन जाऊँ। क्योंकि कर्मचारी बनकर आप पसीना बहाते हैं और निदेशक बनकर आप बोनस खाते हैं। काश! मैं भी किसी बड़ी सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में निदेशक (कार्मिक) होता—तो मैं भी मानव संसाधन नहीं, “मनभावन साधन” विकसित करता!कार्मिक निदेशक का पहला गुण है—"निगाह की नेमत और नीयत की चतुराई"। किसे प्रमोशन देना है, किसे ट्रांसफर करना है और किसे ट्रैप में फँसाना है—ये सब उसके Excel Sheet में नहीं, बल्कि उसके नैन-नक्श और नखरे मापन विभाग में तय होता है। हाजिरी बायोमेट्रिक सिस्टम से नहीं, ‘भावनात्मक फिंगरप्रिंट’ से लगती है। हँसमुख कर्मचारी तुरंत “लीव रिक्वेस्ट अप्रूव” हो जाता है और जो ईमानदारी से काम करे, वह “गंभीर प्रवृत्ति का खतरा” मान लिया जाता है। अगर मैं निदेशक होता, तो इंटरव्यू में डिग्री नहीं, डायलॉग पूछता। “आपने क्या पढ़ा?” नहीं पूछता, बल्कि “आप हमें क्या पढ़ा सकते हैं?” पूछता। और जो मुस्कराकर कह देता कि “सर, जो कहें, वही पढ़ लेंगे”—बस, उसे तत्काल नौकरी दे देता। मेरी नज़रों में वही “वेल ट्रेन्ड कैंडिडेट” होता।
महिला कर्मचारियों की तैनाती तो मेरी कार्यक्षमता का असली इम्तहान होती। चेहरे की मासूमियत, चाल की मृदुता और हँसी की मधुरता—ये तीनों अगर 10 में से 9 नंबर ला लें, तो शेष योग्यता अनावश्यक मानी जाती। फिर वह डेस्क पर काम करे या केबिन में केयर—कार्मिक नीति तो यही कहती : “संवेदनशील कर्मचारियों से ही संस्थान संवेदनशील बनता है।”
और छुट्टियाँ! ओह! क्या मजाल कि कोई छुट्टी बिना उपहार के स्वीकृत हो। मैं हर अर्ज़ी को स्कैन करता—pdf में नहीं, पर्सनल डिटेल फोल्डर में। जो कर्मचारी “पारिवारिक कारण” की छुट्टी माँगे और साथ में ‘मिठाई का डिब्बा’ न दे, उसकी छुट्टी तो ‘पेंडिंग’ में डलती। और जो फेस्टिव सीज़न में फॉलोअप करके ‘त्योहार के तोहफे’ पहुंचा दे, उसकी छुट्टी तो “अप्रूव्ड विद एप्रिसिएशन लेटर” होती।
नियमों की किताब मेरे लिए रिमाइंडर नोट्स होती। न अनुपालन ज़रूरी, न उल्लंघन—बस, “उपयोग” का सवाल होता। एक नियम से एक को बचाया, दूसरे नियम से दूसरे को फँसाया—यही होती असली कार्मिकM (Human Resource Manipulation)। और अगर कोई कर्मचारी RTI डाल दे, तो उसकी फ़ाइल खो जाना और यदि वह ज़्यादा सवाल करे, तो अचानक उसकी “कार्यदक्षता की समीक्षा” आरंभ हो जाना—ये सब “अनौपचारिक व्यवहारिक प्रोटोकॉल” के तहत किया जाता।
निदेशक (कार्मिक) बनते ही मेरा घर ‘कैरियर काउंसलिंग सेंटर’ बन जाता—भांजे, भतीजे, समधी, साले सब “योग्यता के साथ” उम्मीदवार बन जाते। फिर चयन समिति में मेरा चेहरा देखकर उम्मीदवारों की आत्मविश्वास की Battery चार्ज हो जाती। काश, मेरे भी पाँच-सात रिश्तेदार होते जिन्हें मैं नौकरी दिलाकर “रिश्तों में रोजगार” का मेल बैठाता।
हर त्यौहार पर मेरा कक्ष उपहार वितरण केंद्र बन जाता। कोई काजू-किशमिश लाता, कोई घड़ी, कोई स्मार्टफोन और कुछ ‘मनोबल बढ़ाने वाले स्नेहिल लिफाफे’। और मैं सबको मुस्करा कर कहता : “ये सब आपके स्नेह का प्रतीक है, मैं मूल्य नहीं भावना देखता हूँ।” और जब मुख्यालय से निदेशक मंडल आता, तो मेरे आतिथ्य में इतना अपनापन होता कि वे लौटते समय कहते—“हर विभाग में आप जैसे कार्मिक हों, तो तनाव शून्य हो जाए।” और आज जब मैं अपनी डेस्क पर बैठकर केवल कार्यमालाओं की समीक्षा करता हूँ और छुट्टियों की मंज़ूरी के लिए कार्मिक के ऑफिस चक्कर काटता हूँ, तो एक ही बात मन में आती है— काश… मैं किसी कंपनी का निदेशक (कार्मिक) होता! तो मैं भी नौकरी नहीं, नसीब बाँटता… और सैलरी से ज़्यादा सत्ता भोगता!
अब ज़रा सोचिए, किसी बड़ी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी में निदेशक (कार्मिक) होना केवल एक पद नहीं होता, एक पॉवर पैकेज होता है। यहाँ सिर्फ ट्रांसफर-पोस्टिंग नहीं होती, बल्कि भविष्य की ज़िंदगियाँ निर्धारित होती हैं। एक हस्ताक्षर से कोई कर्मचारी “अंडर परफॉर्मर” से “सुपर एचिवर” बन सकता है और किसी का प्रमोशन फाइल के नीचे दबाकर सालों-साल उसका आत्मबल निचोड़कर रखा जा सकता है। सच कहूं तो निदेशक (कार्मिक) होना मतलब—मानव संसाधन का 'अदृश्य भगवान' होना।
और ग्रेच्युटी, पेंशन और सेवा विस्तार के मामले में तो निदेशक का प्रभाव ऐसा होता है कि खुद कर्मचारी यूनियनें भी नरमी से कहती हैं—“सर, मामला आपके हाथ में है, हम उम्मीद करते हैं आप उचित निर्णय लेंगे।” और इस "उचित" शब्द की परिभाषा उतनी ही लचीली होती है, जितनी निदेशक की टाई। अगर मैं निदेशक होता, तो सेवा विस्तार के मामले में हर कर्मचारी से पहले “सेवा भाव” माँगता। और जिसने समय पर “संवेदनशील उपहार” दे दिया, उसका सेवा विस्तार बिना विवाद स्वीकृत कर देता। शेष को मैं कार्मिक के सिस्टम में ‘Pending under observation’ डाल देता और फिर वह बेचारा महीनों तक “नमस्कार सर” करता घूमता।
समारोहों की रौनक और निदेशक की ठसक भी देखिए! कर्मचारी दिवस, महिला दिवस, स्थापना दिवस, रिटायरमेंट पार्टी—हर जगह कार्मिक विभाग की उपस्थिति अनिवार्य होती है और निदेशक का चेहरा मुख्य अतिथि की सूची में। फिर चाहे उसे भाषण आता हो या न आता हो, माइक पर आते ही वह इतना “प्रेरणादायक” दिखता है कि लोग सोचते हैं—“काश, हम भी भविष्य में कार्मिक बनें!” मैं तो सोचता हूँ, अगर मैं निदेशक होता, तो हर महीने एक समारोह करता, ताकि हर महीने उपहार और सम्मान एक साथ मिले।
अब आइए बात करें राजभाषा, CSR, महिला सशक्तिकरण और कर्मचारियों की कल्याण योजनाओं की। डायरेक्टर (कार्मिक) को इन सबका “Brand Ambassador” माना जाता है। ये योजनाएँ सिर्फ नोटशीट में होती हैं, असल में इनका उद्देश्य होता है—मुख्यालय में अच्छे अंक लाना और उच्चाधिकारियों को प्रभावित करना। CSR के नाम पर कोई झोला पकड़ाए, कोई NGO जुड़ जाए और किसी क्षेत्रीय भाषण प्रतियोगिता में इनाम बाँटा जाए। पीछे-पीछे फाइलों में चमचमाते कागज़ और आगे-आगे निदेशक का प्रेस नोट : “कंपनी सामाजिक दायित्व के प्रति सजग है।” काश, मैं भी ऐसा प्रेस नोट जारी कर पाता!
फिर आता है कर्मचारी अनुशासन का अध्याय। कंपनी में कोई अधिकारी अगर सच बोलने लगे या फालतू पारदर्शिता की बात करे, तो उसे “वैकल्पिक दायित्व” सौंप दिया जाता है। यानी कि वह अब मुख्य कार्य से हटकर "विशेष परियोजना" पर काम करेगा—परियोजना कौन-सी? यह कार्मिक भी नहीं जानता। बस, उसका टारगेट है—“ट्रांसफर ऑन डिमोरेलाइजेशन बेसिस।” और उस बेचारे की हालत ऐसी हो जाती है कि वह न इस्तीफा दे सकता है, न कुछ बोल सकता है। काश, मैं निदेशक होता, तो मैं हर ईमानदार की नाक में “अनुशासन का ऑक्सीजन मास्क” लगा देता, ताकि वह चुपचाप केवल साँस ले और कुछ न बोले।
अब ज़रा बाहरी दबावों की हैंडलिंग देखिए। विधायक, सांसद, मंत्री, सचिव—हर किसी की कोई न कोई ‘सिफारिशी चिट्ठी’ आती है। कोई कहता है—“इस उम्मीदवार को रख लीजिए, यह हमारे क्षेत्र का होनहार है।” अब चाहे वह उम्मीदवार Excel में अपना नाम तक टाइप न कर सके, पर निदेशक मुस्कुराते हुए कहता है—“हमारा सिस्टम मेरिट आधारित है, लेकिन प्रयास अवश्य करेंगे।” और फिर वह प्रयास प्रयत्नपूर्वक सफल होता है। अगर मैं निदेशक होता, तो हर सिफारिश पर अलग रजिस्टर बनाता और उसका शीर्षक रखता—"प्रभावशाली अपेक्षाएं"।
महिला कल्याण बोर्ड की बैठकें तो निदेशक (कार्मिक) के लिए सबसे “सुगंधित क्षण” होती हैं। विभाग की तीन–चार “सजग और सौम्य” महिला अधिकारी विशेष रूप से आमंत्रित होती हैं, जिनकी हर राय पर सर हाँ में हाँ मिलाते हैं—“बिलकुल, आप सही कह रही हैं। हम इसे क्रियान्वित करेंगे।” और फिर उसके बाद हाई टी, फोटोज़, इंस्टाग्राम पोस्ट्स और अगले दिन का समाचार : "कार्मिक विभाग ने महिला कल्याण पर शानदार बैठक आयोजित की।" हाय! काश, मैं भी ऐसी बैठकों में “हितधारक” बन पाता।
और एक खास बात—जो कर्मचारी कार्मिक निदेशक के आगे ‘जुहू-चरण’ करता है, उसका हर कागज़ “फास्ट ट्रैक” में चलता है। चाहे वह प्रमोशन हो, कार्मिकA क्लेम हो, LTC पास कराना हो या फिर विशेष फेस्टिवल एडवांस की मंजूरी—सब चुटकियों में। पर जो चुपचाप फाइल भरकर बैठा रहता है, वह महीनों तक “रिकॉल” में रहता है। मैं तो सोचता हूँ, अगर मैं निदेशक होता, तो हर “नमस्ते सर” पर एक बोनस अंक जोड़ देता।
और अब बात करें इंटरनल व्हिसल ब्लोअर सिस्टम की, तो यह कार्मिक विभाग का सबसे सुशोभित झूठ होता है। इसके अंतर्गत जो कर्मचारी भ्रष्टाचार की शिकायत करता है, उसे “संदेहास्पद गतिविधियों में लिप्त” बता कर ट्रांसफर कर दिया जाता है। यानी जो बोलता है, वही दोषी ठहराया जाता है। और जो जुबान पर ताला लगाकर रहता है, उसकी प्रगति इतनी तेज़ होती है कि लगता है जैसे वह एलीवेटर पर बैठा हो। काश, मुझे भी ऐसे “एलीवेटर फैसिलिटी” वाला कार्मिक डिवीजन मिल जाता।
अब आता है सबसे मनोरम हिस्सा—विदेश यात्राएँ। निदेशक (कार्मिक) को “लीडरशिप डेवलपमेंट प्रोग्राम” के नाम पर विदेश भेजा जाता है। वहाँ से लौटकर वह कहता है—“नॉर्वे में कर्मचारियों को कितनी स्वतंत्रता है, हमें भी वह संस्कृति लानी है।” लेकिन उस संस्कृति में से केवल “स्वतंत्रता के नाम पर सुविधाएं” आयात की जाती हैं, ज़िम्मेदारी और पारदर्शिता वहीं रह जाती है। मैं सोचता हूँ—काश, मुझे भी “लीडरशिप टूर” के बहाने पेरिस भेजा जाता, जहाँ मैं वेलनेस और वाइन के अद्भुत संतुलन को मनोबल विकास का नाम देता। अंत में एक कार्मिक का सीक्रेट ब्रीफिंग रूम होता है—जहाँ हर शुक्रवार “रिलेशनशिप मैनेजमेंट” की अनौपचारिक बैठक होती है। वहाँ चाय नहीं, चार्मिंग वार्तालाप होते हैं, चॉकलेट्स नहीं, चतुर रणनीतियाँ बनती हैं और नोटबुक नहीं, नोटबंदी से बची निधियाँ खुलती हैं। जहाँ निर्णय लिए जाते हैं कि कौन किसका "प्रिय कर्मचारी" है और किसे "वर्कप्लेस से दूर रखना है"। हे ईश्वर! काश मैं भी ऐसे किसी “चयन समिति” का अध्यक्ष होता!
निष्कर्ष : कार्मिक निदेशक होना केवल मानव संसाधन प्रबंधन नहीं, बल्कि मानव नियंत्रण तंत्र का प्रमुख होना है। वह अपने “सॉफ्ट स्किल्स” से पूरे विभाग को अपने इशारे पर चला सकता है। जहां नीति से अधिक “पसंद” काम करती है और योग्यता से अधिक “योजना”। अगर मैं भी किसी कंपनी का निदेशक (कार्मिक) होता, तो मैं भी कर्मचारियों की फाइलें नहीं, भावनाएं पढ़ता। तब शायद हर वीकेंड ‘वर्क फ्रॉम रिजॉर्ट’ होता और हर मीटिंग एक “सम्मान समारोह”। मगर अब भी, पसीने से भीगा हुआ, छुट्टी की अर्जी लिए घूमता हूँ और हर बार सोचता हूँ— काश… मैं किसी कंपनी का निदेशक (कार्मिक) होता!
वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह
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