चोंचले बाजी से बचें
मदन सुमित्रा सिंघल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
कहावत है कि गुङ खाये लेकिन गुङयानी से पच करें ऐसे दोगले लोगो ं से हमेशा सावधान रहें। धार्मिक सामाजिक जो रीति रिवाज है, उसका पालन कोई करता है तो निश्चित रूप से करना चाहिए, लेकिन दुसरो ंपर थोपना अनावश्यक है। समय के साथ साथ परिवर्तन करने तथा वस्तुस्थिति से समझौता करना ही पङता है तो लोगों को दिखाने के लिए चोंचले बाजी करने से कोई फायदा नही। आजकल मृत शरीर के शव को रखा जाता है तो स्वाभाविक रुप से कोई भी भूखा प्यासा नही रह सकता, सब लोग समय पर नाश्ता, चाय, खाना, सोना, नहाना एवं दाङी बनाने बनाते हैं, जो मनुष्य के जीने के लिए जरूरी भी है, फिर दिखावा करने की जरूरत नहीं। मृतक के बङे बङे बिस्तर सोफा एवं महंगे कारपेट कोई नहीं फेंक सकता। अस्पतालों में सिर्फ चद्दर धुलाई होती है, बाकी कुछ नहीं यह विज्ञान सम्मत है। कोई टूटी-फुटी मूंज की खटिया एवं सस्ती चद्दर रजाई नहीं जो फेंक दी जाए। खरङपंच तो नहाने वाली बाल्टी मग आदि भी फिंकवा देते हैं। 
अनेक समाजों में बढिया-बढिया शाल एवं साङियां मृतक के सम्मान में शव को ओढाते है। मैंने कैंसर होस्पिटल के पद्मश्री डा रवि कन्नान से साक्षात्कार में पूछा तो सपष्ट कहा कि धुलाई करके हमारे होस्पिटल को दे सकते हैं। अमुमन लोग पुनः बिक्री के भय से बढिया शालों के कोने इसलिए फाङ देते हैं कि सिर्फ गरीब इस्तेमाल करें। आजकल दुकान एवं प्रतिष्ठान अश्थि बिनने के बाद खोल लेते हैं, लोग जबरदस्ती करते हैं कि चलो पगङी रश्म के बाद खोलो, जबकि दुकान खुली हुई ही है। मंदिर में आने के बाद हरी शब्जी का शकुन करते हैं, जबकि घर में रोजाना स्वादिष्ट व्यंजन बनते हैं। पगङी रश्म का बहुत बङा महत्व इसलिए होता था कि इस खाली गद्दी पर किसे बिठाया जाए, जो आज भी जरूरी है, लेकिन अनावश्यक लेनदेन वस्त्रों एवं गहनों का आदान प्रदान रिश्तेदारों की जेब ढीली कराने की प्रथा निर्थक है। 
     अब तो समाजों के इतर हर खानदान एवं परिवार की अलग अलग मान्यता एवं परंपरा बन गयी है ऐसे में अनावश्यक हस्तक्षेप करना नहीं चाहिए। 
पत्रकार एवं साहित्यकार शिलचर, असम
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