कहाँ जा रही जानेमन..., क्यों छोड़ चली मेरा तन? ( काव्य रहस्य)
मदन सुमित्रा सिंघल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
कवि एवं कविता एक अनबुझी पहेली तब बन जाती हैं, जब दर्शक एवं श्रोताओं के पल्ले कुछ नहीं पङता, क्योंकि चार पांच पंक्तियों की तुकबंदी करके किसी तरह अखबार में छपवा लेने अथवा फेसबुक पर वाहवाही लूटने से कोई कवि नहीं बन जाता। आजकल कवि सम्मेलनों में आयोजक चंदा उठाने अथवा कवियों की भीड़ जुटाने के लिए लालच तथा दबाव में कवियों की पंक्ति में ऐसे ऐसे लोगों को बिठा देते हैं, जिन्हें शुर्खियों में आने के लिए मंच मिल जाता है, फोटो अखबारों में छप जाती है। कविताओं में वो गहराई होनी चाहिए, जिसमें श्रोता इतना डूब जाए कि गोता लगाता रहे। हास्य व्यंग्य की कविता अब विभिन्न चैनलों पर मसखरों की जमात बन गयी है, जो कविता कम चुटकुले सुनाते हैं। लोग आसानी से समझकर अथवा आसपास के श्रोताओं के कारण लोटपोट जरूर हो जाता है लेकिन समझ कुछ भी नहीं आता। 
खैर-
आशिक ने उसको पुछा कहाँ जा रही जानेमन
सब कुछ मेरा तू लूटा, क्यों छोड़ चली मेरा तन
    यह मैंने बार बार कवि सम्मेलनों में सुनाई, लेकिन सब वरिष्ठ कवि भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। दाद देनी की बात तो दूर संकोच से किसी ने पूछा तक नहीं। इसका सपष्ट रुप से मेरा भाव है कि मनुष्य जब मरता है तो सिर्फ नश्वर शरीर रह जाता है, उसमें जो जीवनदायिनी आत्मा थी वो निकल गयी। इसका अर्थ यह है कि जब तक आत्मा थी तब तक मैं अस्तित्व में था, चाहे भोग विलास अथवा अन्य रसों में, लेकिन इसके जाने के बाद कुछ भी नहीं बचा। यह भी सच है कि ऐसी गहराई वाली पंक्ति सुनाने अथवा बनाने से कोई लाभ नहीं, इसलिए जैसा देश वैसा भेश की तर्ज़ पर मै उपस्थित श्रोताओं एवं पाठकों के अनुसार ही सीधे सपाट एवं सरल भाषा का इस्तेमाल करते हैं, ताकि अधिकाधिक लोग सुनकर आनंदित हो सके। 
पत्रकार एवं साहित्यकार शिलचर, असम
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