सरकार की बेरुखी के शिकार सांस्कृतिक संध्या में प्रस्तुति के लिए संघर्ष करते लोक कलाकार
डाॅ. कर्म सिंह, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
अंतर्राष्ट्रीय लवी मेले की सांस्कृतिक संध्या में लोक संगीत की प्रस्तुति के लिए हिमाचल के प्रख्यात कलाकार ए सी भारद्वाज को आमंत्रित किया जाना और समय पर प्रस्तुति के लिए मंच पर पहुंचने के बाद उन्हें यह कहकर अपमानित किया जाना कि तुम्हारा नाम लिस्ट से कट गया है, फिर कलाकार द्वारा प्रशासन के सामने गुहार लगाने पर भी प्रस्तुति दिए जाने की स्वीकृति न मिल पाना दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। हिमाचल प्रदेश के प्रख्यात लोक गायक ए सी भारद्वाज ने प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से प्रशासन पर यह आरोप लगाया कि उन्हें स्वयं फोन करके आमंत्रित किया गया और जब वह पहुंचे तो उन्हें प्रस्तुति देने से मना कर दिया गया। यदि ए सी भारद्वाज के साथ ऐसा अपमानपूर्ण दुर्व्यवहार हुआ है तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और चिंतनीय विषय है। कुछ लोगों का कहना है कि जब जिला, प्रांत या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मेलों की तिथियां की घोषणा होती है तो उसके बाद कलाकार नेताओं और अफसरों के माध्यम से अपना-अपना जुगाड़ फिट करने में लग जाते हैं। 
विडंबना यह है कि जहां उन्हें कला एवं संगीत की साधना में समय बिताना चाहिए वहां उन्हें नेताओं और शासन की जी हजूरी में चक्कर लगाने पड़ते हैं। उसके बाद सभी कलाकारों को ऑडिशन के लिए आना पड़ता है। हिमाचल के कोने-कोने से कलाकार दौड़ भाग कर ऑडिशन में पहुंचते हैं और फिर किसी को लिस्ट में शामिल कर लिया जाता है, कोई बाहर हो जाता है। शासन के लिए कलाकारों के चयन की यह प्रक्रिया पारदर्शी बनी रहे इसीलिए ऑडिशन किया जाता है ताकि यह कहा जा सके कि उन्होंने ऑडिशन के आधार पर कलाकार का चयन किया है। परंतु क्या जो कलाकार पिछले कई वर्षों से प्रस्तुति दे रहे हैं, लोक संगीत के क्षेत्र में उनका विशेष योगदान है उन्हें भी ऑडिशन की प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य होना चाहिए। कलाकारों को ऑडिशन के लिए अपना खर्च करना होता है जो की बहुत सारे कलाकारों के लिए आसान नहीं होता। इन कलाकारों के साथ किस तरह का व्यवहार होता है यह कार्यक्रम के दौरान पर्दे के पीछे देखा जा सकता है। कई बार तो लाइव कार्यक्रम में समय के अभाव में गाते हुए भी कलाकार को चुप करवा दिया जाता है जो कि कलाकार के लिए अपमानजनक होता है। प्रशासन की समस्या यह है कि कलाकारों की संख्या अधिक है और समय कम। ऐसे में ज्यादा से ज्यादा कलाकारों को निपटाने की मुहिम में मान-सम्मान की बात एक ओर रह जाती है।
हिमाचल प्रदेश में पहले ऐसा वातावरण रहा है कि मुख्य कलाकार का कार्यक्रम देर रात शुरू होता था और अगली सुबह तक लगातार चलता था और लोग भी बैठे रहते थे। रात भर कार्यक्रम का आनंद लेते थे। फिर कार्यक्रमों की सीमा को रात 10 बजे तक कर दिए जाने पर कलाकारों की भीड़ को संभालना मुश्किल होता जा रहा है। कुछ कलाकारों ने उन्हें उचित मान सम्मान और मानदेय न मिलने पर माननीय न्यायालय में भी गुहार लगाई। फिर सरकार ने कुछ नियम बनाए। कलाकारों को कुछ श्रेणियां में बांटने की भी कोशिश हुई। इसी दौरान एक सांस्कृतिक नीति भी तैयार हुई जिसके अंतर्गत दर्ज किए गए प्रावधानों को हकीकत में जमीन पर उतारने भी विचार किया जाना चाहिए।
स्थानीय कलाकारों की लंबे समय से यह मांग रही है की मुंबईया कलाकारों को बहुत अधिक धन दिया जाता है और स्थानीय कलाकारों को बहुत कम पैसा मिलता है। उनकी शिकायत कुछ हद तक सही कही जा सकती है क्योंकि बाहर से आने वाले और स्थानीय कलाकारों को मिलने वाली राशि में अंतर बहुत अधिक है। फिल्मी गीतों को गाने वाले मुंबईया कलाकारों को लाखों रुपए के पैकेज मिलते हैं। जबकि स्थानीय कलाकारों को बहुत मिन्नतों के बाद भी मिलने वाली राशि कुछ हजार तक किसी सिमट जाती है। क्योंकि फिल्मी गानों का क्रेज अधिक है इसलिए स्थानीय कलाकार भी फिल्मी गीत गाने की होड़ में देखे जा सकते हैं जो कि कतई अच्छा नहीं है । लगता है कि इस खींचतान में कलाकार न तो अपने लोक संगीत की धुन पकड़ पा रहे हैं और न ही फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बन पा रहे हैं। अगर अन्य प्रांतों को देखा जाए तो उत्तराखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर जैसे प्रदेश अपनी सांस्कृतिक विरासत को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में समर्थ हुए हैं और हिमाचल अनेक उपलब्धियां के बाद भी काफी पीछे रह गया लगता है। 
हिमाचल प्रदेश में भी गाना बजाना नाचना यह सब बचपन से ही शुरू हो जाता है। यहां मनुष्य तो क्या देवता भी नृत्य करते हैं। परंतु सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करने की दिशा में इन मेलों के माध्यम से किए जाने वाले प्रयास कम है। प्रदेश में अनेक पारंपरिक लोक संगीत के माहिर कलाकार मौजूद हैं परंतु इन मेलों का मंच उन्हें नहीं दिया जाता। यहां तो वही कलाकार उछल कूद मचाते हैं जो कार्यक्रम हथियाने में जुगाड़ कर पाते हैं। इसलिए ए सी भारद्वाज की पीड़ा को सभी कलाकारों का दुख मानकर विचार किया जाना चाहिए। कलाकार भी एक सामान्य व्यक्ति की तरह जीता है। उसे भी समाज में रहना होता है। इसलिए कलाकारों को राजनीति में नहीं घसीटा जाना चाहिए। कलाकारों की जायज मांगों और उनके मान-सम्मान पर पर अवश्य विचार किया जाना चाहिए। किसी कलाकार का अपमान न हो क्योंकि यह बेइज्जती अकेले कलाकार की नहीं हिमाचल की पारंपरिक लोक संस्कृति, कला और परंपराओं की है जिसे हिमाचल का भोला भाला जनमानस अवश्य प्रभावित होता है। वह कलाकारों का सम्मान करते हुए उनके साथ नाचना गाना चाहता है और सरकार का भी सम्मान करना चाहता है।
शिमला, हिमाचल प्रदेश
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