मदुङी यार किसके? खाये-पिये खिसके
मदन सुमित्रा सिंघल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
यह एक काफी प्रचलित कहावत है- मदुङी यार किसके? खाये पीए खिसके। अर्थ सपष्ट है कि शराबी मित्र उस चौपाल तक ही एक साथ है, जब चढ गयी अथवा खत्म हो गई तो धीरे-धीरे अपनी क्षमता एवं सुविधा के अनुसार बिन कहे खिसक जातें हैं। अभिप्राय यह है कि उनकी मित्रता वहीं तक सिमित होती है, लेकिन जाने-माने शराबी आदतन डिंगे तो बङी-बङी हांकते है कि कल आ जाना, लेकिन सुबह पहचानते ही नहीं कि भैया बेकार क्यों रिश्तेदार बन रहे हो कौन है आप? यानि मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं यूँ जा रहे हो ऐसे कि जानते नहीं।यह सब नुक्कड़ पर बैठकर नशा करने वाले लोगों से उनसे लोग डरते नहीं, लेकिन वो समझते हैं कि मेरा रूतबा बन गया। सिर्फ अपने मान सम्मान के लिए शरीफ लोग मूंह नहीं लगना चाहते‌। ऐसे लोगों की ना घर में ना समाज में ना ही रिश्तेदारी में कोई इज्जत इसलिए भी नहीं होती कि शाम होते ही तलब लग जाती है, चाहे अवसर कोई धार्मिक सामाजिक अथवा अन्य तरह का। 
पीना पिलाना राजा महाराजाओं के समय से है, लेकिन शालीनता से इससे राजनीतिक एवं कूटनितिक मायने भी होते हैं। आज भी देश विदेश में परंपरा भी है। बङे-बङे होटलों में विवाह शादी में सुप्रबंध होता है, इससे कोई भी इच्छित व्यक्ति मेहमान आनंद ले सकता है। बिना विघ्न बाधाओं के प्रचलन जारी है। शराब से राज्य सरकारों को बङा राजस्व मिलता है, इसलिए कोविद काल में भी दवाई खाद्यान्न की दुकानें खोलने के साथ-साथ शराब की दुकान खोलने के लिए लगभग देश के राज्यों में होङ लग गयी। शराब की वेदी पर क्या क्या स्वाह हुआ किसी से छुपा नहीं, फिर भी वो है कि मानते ही नहीं। 
पत्रकार एवं साहित्यकार शिलचर असम
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