पितृपक्ष भारतीय संस्कृति का अद्भुत महापर्व

शि.वा.ब्यूरो, लखनऊ। पितृपक्ष भारतीय संस्कृति का अद्भुत महापर्व है। इसकी महिमा देखिए कि हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार जैसे दशहरा, रक्षाबंधन, होली, श्रीराम नवमी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, महाशिवरात्रि इत्यादि पर्व एक दिन मनाए जाते हैं। दीपावली पांच दिन, नवरात्रि नौ दिन, गणेशोत्सव दस दिन का होता है, लेकिन पितृपक्ष पूरे सोलह दिन का उत्सव है। शास्त्रों में इसे महालय कहा गया है। मह - अर्थात उत्सव और आलय - अर्थात घर। यूं समझिये कि सामान्यतः हमारे घरों में किसी अतिथि का आगमन होता है, तो हम कितने प्रसन्न होते हैं। कितनी श्रद्धा से उसका सत्कार करते हैं और कितने उत्साह से नाना प्रकार के सुस्वादु व्यंजन, पकवान आदि बनाकर अतिथि को परोसते हैं। श्राद्ध पक्ष में हमारे पितृगण हमारे घर पधारते हैं। हमारे वे पूर्वज जिन्होंने हमें जन्म दिया, जीवन दिया, ज्ञान और संस्कार दिया, और हमें अपनी सत्ता सौंपकर अपना उत्तराधिकारी बनाया। जिनसे हमारा अस्तित्व है, जो हमारी समूची पितृ परंपरा के उत्स हैं, उसकी विकास यात्रा के स्रोत हैं, वे थे, तो हम हैं, जब वे पधारते हैं तो क्यों न हमारे घर में उत्सव होगा। इसीलिए तो समूचे श्राद्ध पक्ष में पूरे सोलहों दिन खीर-पूड़ी और नित नये व्यंजन बनते हैं। परिजन, रिश्तेदार, कुल-कुटुम्ब के लोग आते हैं और साथ बैठकर भोजन करते हैं। यह उत्सव ही तो है, हमारे दिवंगत पूर्वजों के आगमन का, जो देह त्याग के बाद पितृलोक के वासी हैं और पितृपक्ष में हमारी श्रद्धा से तृप्त होने, हमारे श्राद्ध का तर्पण ग्रहण करने हमारे घर, अपने वंशजों के पास आते हैं। यह दिवंगत पूर्वजों से जुड़ा पर्व है। कदाचित इसीलिए जाने-अनजाने शोक और अशुभ मान लिया गया, लेकिन इससे अद्भुत दूसरा कोई पर्व नहीं है। यह अपनी समूची पितृ परंपरा की वंदना का व्रत है। यह कृतज्ञता और आभार के कीर्तन का काल है। यह अदृश्य अतिथियों के आगमन का उत्सव है, जो इसी बहाने जीवन की आपाधापी में जुटे हमारे अपने कुटुंबीजनों को एक पंगत में ले आता है। यह श्रद्धा भाव से पितरों को तृप्त करने का कर्म है। इसीलिए यह श्राद्ध है, क्योंकि इसमें उनके प्रति श्रद्धा है - जिनसे हम हैं। यह तृप्त करने का कर्म है। इसलिए तर्पण है। यह एक तरह से वृक्ष के शिखर पर गगनचुंबी पत्तों द्वारा अपनी जड़ों का अभिषेक है।
यह सोलह दिनों का होता है, हिंदू पंचांग के अनुसार। हिंदू पंचांग में अंग्रेजी केलेंडर सरीखे 12 मास ही हैं। लेकिन एक मास में 1 से 30 तक तिथि न होकर 1 से 15 और फिर 1 से 15 के दो पक्ष होते हैं। मास के प्रारंभ में कृष्ण पक्ष और फिर शुक्ल पक्ष। शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि पूर्णिमा अर्थात पूर्णमासी है। श्राद्ध पक्ष भाद्र मास की पूर्णिमा से शुरु होकर आश्विन मास की अमावस को समाप्त होता है। स्वभावत: हमारे परिजन इन्हीं सोलह तिथियों में से किसी एक तिथि पर देह त्याग करते हैं। जिस तिथि को वे देह त्यागते हैं, उसी दिन उनके श्राद्ध का विधान है। हमारे पितृ इस पक्ष में तय तिथि पर पधारते हैं और मंगल दान कर हमें धन्य करते हैं। वे जब सशरीर होते हैं तब भी सदा हमें देते हैं, कृपा करते हैं, अपना आशीष देते हैं। शास्त्र कहते हैं, "देह त्याग के बाद भी वे पितृलोक के वासी होकर तर्पण के बहाने हमारा शुभ करने ही पधारते हैं। वे केवल हमारी प्रसन्नता से प्रसन्न होते हैं। हमारी श्रद्धा से तृप्त होते हैं!" संसार में उनसे अधिक धनी, शक्ति संपन्न और सौभाग्यशाली कोई नहीं है, जिनके माता-पिता सशरीर हैं, साथ हैं, प्रसन्न हैं और श्रद्धा से तृप्त हो रहे हैं। सच मानिये जिनके सिर पर माता-पिता का हाथ है, वह ईश्वर से भी अड़ जाएं, यमराज से भी लड़ जाएं, तो विजय उन्हीं की होगी, क्योंकि उनके पास माता-पिता हैं। माता-पिता घर में हैं, तो हर दिन उत्सव है। यदि नहीं हैं, तो श्राद्ध पक्ष महालय बनकर आता है। आपकी श्रद्धा से तृप्त माता-पिता का आशीष बाकी दिनों को उत्सव ही बनाकर जाता है। लोकेषु पितर: पूज्या देवतानां च देवता:। शुचयो निर्मला: पुण्या दक्षिणां दिशमाश्रिता:।। ( अथ श्री महाभारत 426) अर्थात सभी लोकों में पितर पूजनीय होते हैं। वे देवताओं के भी देवता हैं। उनका स्वरूप शुद्ध, निर्मल एवं पवित्र है। वे दक्षिण दिशा में निवास करते हैं। यथा वृष्टिं प्रतीक्षन्ते भूमिष्ठा: सर्वजनत्व:। पितरश्च तथा लोके पितृमेधं शुभेक्षणे।। हे शुभेक्षणे! जैसे भूमि पर रहने वाले सभी प्राणी वर्षा की बाट जोहते हैं, उसी प्रकार पितृलोक में रहने वाले पितर श्राद्ध की प्रतीक्षा करते रहते हैं। अनुशासन पर्व 145/12 ( उमा-महेश्वर संवाद में शिवजी की वाणी। ) इस पूर्णिमा से अगली अमावस तक पितर-पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व श्राद्ध मनेगा। जिस तिथि को जिस परिजन का निधन हुआ हो, उसके प्रति खीर बनाकर गो, श्‍वान, काग और अतिथि को न्‍यौतकर जिमाने की परंपरा का पालन होगा। यह बहुत पुरानी परंपरा है। लगभग प्रत्‍येक भारतीय परिवार में श्राद्ध की परंपरा है। श्राद्ध पर सर्वाधिक विमर्श हुआ है। तीर्थों के बाद श्राद्ध ही ऐसा विषय है जिस पर सैकड़ों निबंध ग्रंथों का प्रणयन हुआ है। इनमें सांवत्‍सरिक, पार्वण, आभ्‍युदयिक और नित्‍य श्राद्धादि की क्रियाएं की जाती हैं। कहा गया है- "सांवत्‍सरिक पार्वणा अभ्‍युदयिक नित्‍यश्राद्धादिरूपोत्‍तरा क्रिया।" यह एक ऐसी परंपरा है जो स्‍थानीय और स्‍थानांतरित (दर-बदर) होकर आने वालों के बीच की मान्‍यताओं की परिचायक भी है। गुर्जरों में एक समुदाय है जो दीपावली के दिन ही जलाशय पर जाकर श्राद्ध करता है, जबकि अन्‍य घर पर ही अथवा गया आदि तीर्थों में जाकर श्राद्ध करते हैं। इसमें तेरह प्रकार के पुत्रों द्वारा श्राद्ध करने की विशिष्‍ट मान्‍यताएं स्‍मृतियों में मिलती हैं और वायु, विष्‍णु इत्‍यादि पुराणों में तो श्राद्ध का अतिशय वर्णन है। गरुड़ पुराण में पितरों को श्राद्ध का अभिलाषी बताया गया है। पितृगाथा इस अवसर पर गेय है। यह पर्व भारतीय संस्‍कृति की सामाजिक संस्‍था का द्योतक है। पितृ पक्ष चल रहा है। हमारे उन पूर्वजों की स्मृति का पर्व जिनके हम अंश हैं, वंशज हैं। वे न होते तो हम न होते। वे थे, उन्होंने हमें जन्म दिया, हमारा पालन-पोषण किया, संस्कार दिये और हमें अच्छा नागरिक, श्रेष्ठ मनुष्य बनने की सीख दी। वे अपना जीवन जीकर और अपना श्रेष्ठतम हमें देकर चले गए परमात्मा के घर, स्वर्गलोक, पितृलोक में। उनके प्रति हम अपनी श्रद्धा तर्पण के माध्यम से अर्पित करते हैं। श्रद्धा का यही अर्पण श्राद्ध है। जो आता है, वह जाता है। शास्त्र कहते हैं, "जो चले गए हैं, हमारे स्वजन थे, परिजन थे, पूज्य थे, स्वभावत: उनके जाने पर एक खालीपन हम अनुभव करते हैं, लेकिन इस खालीपन की अभिव्यक्ति यदि शोक, प्रलाप या आंसुओं में होती है, यह न तो उचित है, न ही शास्त्र सम्मत!" इतना ही नहीं शोक और उनके वियोग में आंसू बहाकर हम अपने दिवंगत परिजनों को कष्ट ही देते हैं!" श्रीमद्भगवत गीता के दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, "जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए पंडित लोक शोक नहीं करते!" कारण वे इसके ठीक अगले श्लोक में समझाते हैं। वह कहते हैं, "ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी काल में मैं नहीं था, तू नहीं था, और ये सब लोग नहीं थे, और न ही आगे ऐसा होगा कि ये सब नहीं रहेंगे!" आशय यह है कि आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है। जो अमर है, वह अमर ही रहेगा और जो नश्वर है, उसका नाश होगा ही। तो जो पंडितजन अर्थात सही और गलत, सत और असत का भेद जानते हैं, वे आत्मा के लिए इसीलिए शोक नहीं करते, क्योकि वह अमर है, अविनाशी है, और शरीर के लिए इसलिए शोक नहीं करते, क्योंकि शरीर तो नश्वर है ही। कुल मिलाकर शोक नहीं करना है। यही समझदारी है, बुद्धिमानी और शास्त्र सम्मत आचरण भी। पंचतंत्र इस बारे में अद्भुत वचन कहता है। मित्रभेद प्रकरण के 365वें श्लोक में शोक न करने के लिए कहा गया है- श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुड्ंक्ते यतोsवश:। तस्मान्न रोदित्व्यं हि क्रिया: कार्याश्च शक्तित:।। अर्थात मृतात्मा को अपने बंधु-बांधवों के द्वारा त्यक्त कफयुक्त आंसुओं को विवश होकर पीना पड़ता है। इसलिए रोना नहीं चाहिए। बल्कि अपनी शक्ति के अनुसार मृत बांधव की और्ध्वदैहिक क्रिया करनी चाहिए। स्पष्ट है कि रोना, शोक मनाना ठीक नहीं है। इसी तरह स्कंद पुराण भी यही निर्देश देता है। लिखा है- मृतानां बान्धवा ये तु मुंचन्त्यश्रूणि भूतले। पिबन्त्यश्रूणि तान्यद्धा मृता: प्रेता: परत्र वै।। अर्थात मृतक के बंधु-बांधव जिन आंसुओं का भूतल पर त्याग करते हैं, उन आंसुओं को स्वर्गवासी परलोक में पीते हैं। यदि आप चाहते हैं कि आपके दिवंगत स्वर्गवासी परिजनों को आपके द्वारा बहाए आंसू न पीना पड़े, तो कृपा कर उनकी स्मृति को अवश्य संजोएं। श्राद्ध पक्ष में तर्पण अवश्य करें, लेकिन आंसू न बहाएं।

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