मेरी माँ की रसोई में मेरा पहला कदम


डॉक्टर मिली भाटिया, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।


बात 2003 की है। मैं तब बीए फर्स्ट ईयर में आई ही थी। हॉस्टल से घर में राखी की पहली बार छुट्टियाँ मनाने आई थी। मम्मी ने पूछा-क्या बनाऊँ? मैंने कहा-आलू के पराठे। मम्मी बोली-सुबह ही तो दम आलू खाए हैं, आलू के पराठे सुबह बना दूँगी। मैं उनसे रूठ कर बैठ गई। वो भी गुस्से में थीं, बोली-जो खाना है, खुद भी बनना सीख। मैं भी बोली- हाँ हाँ बना लूँगी खुद। कह तो दिया] लेकिन हाथ-पैर फूल गये मेरे। आज तक मैंने चाय तक नहीं बनाई थी। गैस तक जलानी नहीं आती थी, कभी काम ही नहीं पड़ा। वो तो शुक्र था ईश्वर का, कि फ्रिज में कम से कम उबले हुए आलू मिल गये। मम्मी के दम आलू के बच गये होंगे। मुश्किल से आटा लगाया। जैसे-तैसे पराठा बेला, तवे पर डाला तो उसके कम से कम 20 टुकड़े हो गये। पापा को परोसा तो बोले-वाह! आज तो पराठे के टुकड़े भी नहीं करने पड़ेगे।



किचन हडताल करने के बाद मम्मी की आंख़ो में आँसू थे, फिर मुझे उन्होंने पराठे बनाने सिखाये। उसके 2 महीने बाद वो एड्मिट हुई हॉस्पिटल में। वहाँ से उन्होंने मुझे फोन पर पत्तागोभी की सब्जी बनानी बताई। इसके 10 दिन बाद तो वो ईश्वर के घर ही चली गई। मम्मी के हाथ के खाने का स्वाद कभी नहीं भूल पाई आज भी। बचपन में पापा कहते थे अपनी बेटी को खाना बनना सिखाओ, तब मम्मी बोलती थी, जिंदगी भर यही तो करना है, अभी इसको पड़ने दो। उनके जाने के बाद कॉलेज हॉस्टल से घर आई तो एक साल बाद जब मैंने खाने में पत्तागोभी की सब्जी बनाई, तब मेरी दादी बोली-तेरे हाथ में तो तेरी माँ का स्वाद है, सब्जी इतनी स्वादिष्ट बनी है। माँ के हाथ के अचार, पापड़ सब कुछ बहुत याद आता है। मेरी माँ को मासी, मामा, पापा सब मजाक में हलवाई ही बोलते थे। वो बहुत स्वादिष्ट खाना और मिठाइयाँ बनाती थीं। ये थी मेरी पहली रसोई, जिसमें एक आलू के पराठे के सिकते वक्त 20 टुकड़े हुए थे।



रावतभाटा-राजस्थान


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