मुकेश कुमार ऋषि वर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
इस साल प्रकृति ने कुछ ज्यादा ही कहर बरपाया। पिछले वर्ष तो बाढ़ से कुछ फसल बच गई थी, लेकिन इस साल सब कुछ बह गया। बेचारे देवीदीन चिन्ताग्रस्त टूटी खटिया पर पड़े - पड़े सोच रहे थे कि कितना मंहगा बीज खरीदा, कितने - कितने मंहगें नामी कीटनाशक फसल में डाले, साहूकार से लिया, सारा ऋण फसल में लगा दिया। बीवी - बच्चों के लिए उस पैसे से एक रुपये का लत्ता (कपड़ा) तक न खरीदा। इस साल कैसे गुजारा होगा। बूढ़ी माँ की दवा का खर्च, बच्चों की पढ़ाई का खर्च, बिजली का बिल और ऊपर से साहूकार का पांच प्रतिशत वाला ब्याज और तमाम छोटे-बड़े खर्च...। सोचकर ही देवीदीन की आत्मा कांप उठी। सारी रात करवटें बदलते हुए गुजारी। सुबह तड़के देवीदीन खेतों की ओर निकल गये। घने पेडों में जाकर एक पेड़ के मजबूत से तने से गमछा बांधने लगे। फंदा तैयार बस झूलने ही वाले थे कि उधर से गुजर रहे मातादीन की निगाह देवीदीन पर पड़ गई। समय रहते देवीदीन जी बच गए।
मातादीन-मुझे पता है देवीदीन! इस साल तुम्हारा सबकुछ खत्म हो गया, ऊपर से तमाम कर्ज, लेकिन मेरा क्या बचा है। मेरी भी तो सारी फसल बह गई। कर्जा तुमने लिया है तो क्या मैंने नहीं लिया। तुम्हारे घर में तमाम समस्या हैं तो क्या मेरे घर में नहीं हैं, लेकिन मुझे देखो, मैं कायर नहीं हूँ। जिंदगी से जंग लड़ रहा हूँ, जो होगा सो देखा जायेगा। जीवन का सारा भार परमेश्वर के ऊपर छोड़ दिया है। परिवार में चौबीसों घंटें कलह होती रहती है। पत्थर बनकर सब सह जाता हूँ। मेरे भाई! मौत तो एक दिन आनी ही है, लेकिन इसतरह अपने आपको समय से पहले खत्म कर लेना जीवन की सबसे बड़ी कायरता है। देवीदीन मातादीन की बातों को समझ गये। उनके मृतप्राय हृदय को संजीवनी मिल गई। देवीदीन ने आत्महत्या करने का विचार अपने मन से हमेशा - हमेशा के लिए खत्म कर दिया और जिंदगी से संघर्ष का संकल्प लेकर घर की ओर चल पड़े।
ग्राम रिहावली, डाक तारौली गुर्जर, फतेहाबाद, आगरा