पुराना है विश्वकर्मा समाज के दमन का इतिहास (एक सामाजिक सरोकार से जुड़ी विश्वकर्मा समाज की राजनेतिक मुहिम)

आरसी शर्मा पांचाल, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

 

विश्वकर्मा वंशीय समाज का वर्चस्व और शिल्पी ब्राह्मण के राजनैतिक सफर को आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व तक़रीबन ग्यारहवीं शताब्दी में बन्दिशों में डाल दिया गया था, जिसका कारण दश महाविद्यामी सदी से 1947 सैंतालीस तक के बीच भारत की अस्मिता के लुटेरों ने हमारे भारत पर आक्रमण करके बार-बार भारत को रक्त रंजित किया जाना रहा। जो भी विदेशी आक्रांता भारत आया, उसके साथ वहां की निर्दयी फौज और चापलूसों का आना जाना रहा और उन्होंने हमारी संस्कृति और सभ्यता की ऐसी कमर तोड़ी कि हम गुलाम बनने पर मजबूर कर दिये गये। इस बीच एक विश्वकर्मा समाज ही एक विकल्प बचा था, जिसे विदेशियों और भारतीय शासकों ने अपने अपने रण कौशल विकास मिशन के तहत खूब इस्तेमाल किया, लेकिन हमें हमारे शिल्प ब्राहमण धर्म से वंचित करके राजनैतिक स्वतंत्रता की लड़ाई के नाम पर अपने आयुधों के निर्माण तक सीमित कर दिया गया। हम केवल मजदूर बनकर रह गये। साफ शब्दों में कहा जाये तो हमें अपने अपने ढंग से देशी-विदेशी शासकों ने इस्तेमाल किया।

जैसे ही मुगलों का भारत पर अधिपत्य स्थापित हुआ तो हमें केवल हिन्दू धर्म का आंका जाने लगा, जिसका परिणाम यह हुआ हमे अपने भारतीय राजपूत राजाओं के ओर अपनी वतन की आजादी की लड़ाई में राजपूत शासकों के साथ भागीदार होना पड़ा, लेकिन राजपूत राजाओं ने भी हमारा जमकर इस्तेमाल किया। उन्होंने भी हमे हमारे मूल ब्राह्मणत्व की तरफ नही लौटने दिया। हमे और मजबूर करके अपने युद्ध कौशल आयुधों के निर्माण के लिए विवश कर दिया। हमे अपने शासन गौत्र तक के लिए मजबूर कर दिया। विश्वकर्मा समाज के 50% पर्सेंट गौत्र राजपूत राजाओं की देन है। पूर्वजों के अनुसार अंग्रेजी हुकूमत में न्याय व्यवस्था तब तक बहुत कड़ी रही, जब तक भारत में स्वतंत्रता आंदोलनों की शुरुआत नही हुई थी।

अंग्रेजी हुकूमत में हमारे सम्मान की वापसी के आसार बनने लगे थे। उन्नीसवीं शताब्दी में तकरीबन चालीस फ़ैसले विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों के हक में दिये गये, लेकिन भारत की ब्राह्मणवादी ताकतों और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के भारतीय अस्थाई ब्राह्मण नकाबपोशों ने अंग्रेजों से मिलकर हमारे सभी साक्ष्यों को मिटवा दिया। उसके बाद से केवल कुछ अम्बेडकर जैसे दलित नेताओं ने उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाई और वह बहुत हद तक कामयाब भी रहे, लेकिन विश्वकर्मा समाज का कोई नेता और संगठन न होने के कारण हम अधर में फंस गए और आज तक वही रोना लिए बैठे हैं। आज भारत में विश्वकर्मा वंशीय समाज करोड़ों की संख्या में है, लेकिन गुलामी, चाटुकारिता, दासता से आज तक भी मुक्त नही है।

 

राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय न्याय मंच भारत (फरीदाबाद) हरियाणा

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