मनमोहन शर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
सह अनेकों चुभन
हटा काँटे चुन चुन
भर देता हूँ फूलों से
सब की राह
ताकि छांट सकूँ
इंसानियत की कसौटी में
सत, असत व गुमराह
बढ़ता चलता इसी धुन में
बेपरवाह सा
तंज, व्यंग्य सुनते
फिर से पुष्प चुनते
फिर अगली गली
अगले गाँव
छलनी से पाँव
तलाशता फिर से
अपना सा
जो है एक अधूरा
सपना सा
है ज़रूर मगर कहीं
मुझ सा भी बंजारा
देख पाता मेरी तरह जो
दुनिया का नजारा
जिस पर गाढ़ दिए
पक्के तंबू
बरसात की अंधेरी रात में
जलती मशाल की सी
परिक्रमा करते कीट पतंगों ने
स्थायित्व की उम्मीद में
मगर जल जाते अगले ही पल
जिनके पंख
कहाँ देख पाते फिर भी
वो दुनिया का असली रंग
बचे खुचे कीट पतंगे
जाने जीते हैं किस आस
कहाँ देख पाते
सूरज की किरणों का
संतरंगी प्रकाश।
कुसुम्पटी शिमला-9
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