........चूकिं संस्कृति का उत्थान ही विकास का सम्भल है, मण्डी करसोग के एकमात्र प्राचीन धनोटू वाद्ययंत्र बजाने वाले दिव्यांग कलाकार को संरक्षण देने की मांग



हिमेन्द्र बाली"हिम"कुमारसेन, शोद्धार्थी गगनदीप कुरुक्षेत्र। 

डा. जगदीश शर्मा पांगणा।

राज शर्मा (आनी) कुल्लू।


 

जब मोती राम अपना धनोटू लेकर उस पर तान छोड़ते हैं तो दुनिया के सारे गम भूल जाते हैं। भरी जवानी में मोती राम की आंखों का रोशनी चली गयी। उसके पास सहारा बचा धनोटू जो एक प्राचीन पारंपरिक वाद्ययंत्र है। हिमाचल प्रदेश में स्ट्रिंग वाद्ययंत्रों की बहुत कमी रही है। प्रदेश के कुछ इलाकों में इनका बजाया जाता है। म्युजिकल हैरिटेज ऑफ इंडिया की लेखिका मनोरमा शर्मा लिखती हैं कि केवल एकतारा, दोतारा, रुकना, धनोटू और सारंगी यहां देखने को मिलते हैं। एकतारा व सारंगी भ्रतारी हरी व गुगा गाथा में जोगी बजाते हैं और रुआना भरमौर का गद्दी समुदाय आईचेली व मुसायदा गान में बजाते हैं। वहीं धनोटू मंडी इलाका में बजाया जाता है। मोती राम की उम्र साठ साल के पार हो चुकी है। करसोग के नलवाड़ मेलों की कभी सान रहे मोती राम अब घर पर बैठने को मजबूर हैं। कई तरह की बीमारियों ने उनको घेर लिया है, लेकिन धनोटू ने उनका साथ नहीं छोड़ा। उनकी चिंता है कि नौजवान पीढी टीवी और मोबाइल में फंस गयी है और पारंपरिक वाद्य यंत्रों में कोई रुचि नहीं दिखा रही।  

क्या है धनोटू

धनोटू एक प्राचीन वाद्ययंत्र है। यह बहुत ही अनूठा और रोमांचकारी घर्षण वाद्ययंत्र है। यूरोपियन वायलिन और सारंगी सदृश चार तार वाला खोखला वाद्ययंत्र है। इसे गोद में बायीं ओर रखकर इसके ऊपरी तंग भाग को बायें हाथ के अंगूठे और तर्जनी उंगली से थामकर तथा शरीर से टिकाकर दायें हाथ में धनुषनुमा यंत्र को धनोटू की तारों पर रगड़कर इन तारों को बायें हाथ की शेष तीन उंगलियो से क्रम में हलका दबाव बनाकर बजाया जाता है। इस धनुष में कहीं घोड़े की पूंछ के बाल तो कहीं बकरी की आंत की डोर का इस्तेमाल होता है। इस को बनाने के लिये बुरांस के पेड़ की लकड़ी की प्रयोग होता है। धनोटू की सुरीली और रहस्यमयी आबाज विशेषकर घर्षण से ही निकलती है। धनोटू की कंपन से निकलने वाली धुन लोगों को दीवाना बना देती है।


शिकारी देवी की कृपा से मानी जाती है धनोटू की उत्पत्ति

मोती राम कहते हैं कि यह शिकारी माता का वाद्य यंत्र है। इसके बारे में कहानी प्रचलित है कि एक बुजुर्ग दंपत्ति की छह संतान थी, जिनके आगे बच्चे नहीं हो रहे थे। बुढी माता शिकारी देवी की यात्रा पर गयी और बच्चों के लिये संतान प्राप्ति की मन्नत मांगी, लेकिन कहते हैं बुढी माता को ही एक बच्चा हो गया। उसकी संतानों ने उसका बहुत लाड़प्यैर से पाला। उसके कहीं बाहर नहीं जाने देते थे, लेकिन वह बार-बार शिकारी माता की तरफ भागता था। एक बार वह वहां पहुंच गया तो उसने शिकारी से वर मांगा कि इसके कुछ ऐसा दे जो जीवन भर उसके साथ रहे। शिकारी माता ने उसे एक वाद्य यंत्र सौंपा, जिसको धनोटू कहते हैं।  इसका अन्य स्थानीय नाम किन्दरी है। कहते हैं जब भी वह लड़का इसको बजाता था तो जंगल के तमाम पक्षी व जानवर इसको सुनने आते थे।

मोती राम ने भी जब पहला धनोटू अपने हाथ से बनाया था तो वह शिकारी माता के दरबार आशीर्वाद लेने गये थे और एक बकरे की भेंट दी थी। शिकारी माता से प्रार्थना की कि माता इस बेजान लकड़ी में अपने सुरों की जान फूंक.मोती राम ने पचास साल पहले यह वाद्य यंत्र बनाया था। इसकी प्रेरणा उनको अपने पिता से मिली थी, जो खुद इसको बजाते थे। वह जो वाद्य यंत्र लाये थे, वह किन्नोर से मिला था। मोतीराम ने धनोटू पर पितल व एलुमिनियम से दो चित्र उकेरा है, वह शिकारी माता का प्रतिरुप है। 

भाषा व सांस्कृतिक विभाग को दिये दो यंत्र

मोती राम जी भाषा व सांस्कृतिक विभाग के स्वर्गीय अधिकारी पंडित जवाला प्रकाश व हंसराज को याद करते हुये कहते हैं कि उन्होंने मुझे बुलाया था, मैंने शिमला के तीन दफ्तर देखे हैं। हम कई कई दिन पंडित जी के घर रिहर्सल करते थे। मैंने विभाग को दो धनोटू बना कर दिये थे। उसके बदले में भाषा विभाग ने उस समय 1200 रुपये का मानदेय प्रदान किया था, लेकिन अब कोई रुचि नहीं ले रहा है। वह लोग भले थे। अब कोई नहीं सुध ले रहा। एक यंत्र को बनाने में एक हफ्ता भर लग जाता है। 

कुरुक्षेत्र के शोद्धार्थी गगनदीप का कहना है कि करसाेग के भडारनू गांव के नेत्रहीन मोती राम धनोटू नामक पहाड़ी संगीत यंत्र के इकलौते वादक है। मोतीराम आज घोर आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे हैं। समय रहते अगर इस परंपरा का अगर संरक्षण नहीं किया गया तो हिमाचल की यह सुरीली विरासत लुप्त हो सकती है।

सुकेत संस्कृति  साहित्य एवं जन कल्याण मंच पांगणा के अध्यक्ष डा. हिमेन्द्र बाली "हिम" का कहना है कि यह चिंता का विषय है कि आज के भौतिक युग में हमारी संस्कृति का द्रुत गति से ह्रास हो रहा है। हमारे पारम्परिक वाद्ययंत्रों की मेले, त्योहार व धार्मिक समारोह के अतिरिक्त लोकानुरंजन में अंहम भूमिका रही है। देवोत्थान,देवनृत्य,देव शयन एवम् सांस्कारिक समारोह इन यंत्रों की अनुपस्थिति में श्रीहीन हैं। मोती राम नेत्र ज्योति के खो जाने के आघात के बावजूद भी अपने पारम्परिक दायित्व से जुड़े रहे हैं। बुजुर्गों की बपौती को जीवन की सांझ में ऐसी विकट स्थिति में भी सामान्य तौर पर सम्भालना किसी विलक्षणता से कम नहीं। अपनी संस्कृति से ऐसे अगाध प्रेमी को आज दो जून रोटी के लिए तड़फते देखना हमारी उदासीनता का प्रमाण है। यह तो निश्चित है कि धनोटू के बिरले वादक होने के बावजूद मोती राम को किसी दया की आवश्यकता नहीं है, परन्तु सभ्य कहे जाने वाले समाज के कितने लोगों ने दुर्लभ संस्कृति के संवाहक की शारीरिक अक्षमता और अभाव के घावों को देखकर सहायता के स्नेहिल हाथ बढ़ाए हैं।

सुकेश संस्कृति साहित्य एवं जन कल्याण मंच पांगणा के अध्यक्ष हिमेन्द्र बाली "हिम",शोद्धार्थी  गगनदीप (कुरुक्षेत्र) पुरातत्व चेतना संघ मंडी द्वारा पुरातत्व राज्य पुरस्कार से सम्मानित डा.जगदीश शर्मा, व्यापार  मंडल पांगणा के अध्यक्ष सुमित गुप्ता का कहना है कि मोती राम की जीवटता व संस्कृति प्रेम को देखकर यह तो हमारा कर्तव्य बनता है कि कला संस्कृति भाषा विभाग को ऐसी दुर्लभ कला के दम तोड़ती दशा से अवगत कराए कि किस तरह ऐसी विधा के संवाहकों को आश्रय दे। मोती राम को सम्बन्धित विभाग शीघ्र वितीय सहायता और पैंशन प्रदान करें, चूकिं संस्कृति का उत्थान ही विकास का सम्भल है।

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