स्मृति वर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
एक प्यारी सी मुस्कान के पीछे खुद के आंसु छुपाने लगी हूं,
अपने दर्द हर किसी को बता देती थी,
अब खुद में दबाने लगी हूं.
क्या मैं बदलने लगी हूं?
हर किसी पे तुरंत भरोसा कर लेती थी,
अब नए नए लोगों से मिलके घबराने लगी हूं.
क्या मैं खुद ही बदलने लगी हूं?
हसना - मुस्कुराना एक ही काम था मेरा,
अब अपने काम से घबराने लगी हूं.
क्या मैं खुद को बदलने लगी हूं?
देखा करती थी हज़ारों सपने,
खुद को तारा बनाना चाहती थी,
सपने तो सपने ही रह गए,
वास्तव में मैंने कोई उम्मीद नहीं की फिर साथ एक आत्मा बन गयी।
पता नहीं क्यूं मैं बदलने लगी हूं.
मेरा ना ही है कोई सपना ना ही कोई उद्देश्य।
मैं एक खेल में फंस गयी हूँ, हालांकि, मेरा खेल खत्म हो गया है।
हां शायद मैं बदल गई,
जैसे पहले थी वैसी अब नहीं,
खुद से ही निराश हो गई हूं,
नहीं चाहती थी पर हां मैं बदल गई हूं.
कक्षा 12 प्रयागराज