कुंवर आरपी सिंह, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
अरब देश में एक उच्चकोटि के फकीर हातिम रहते थे। चूँकि वह तत्काल हर बात पर प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करते थे, इसलिये उनके पास आने वाले लोग यह समझते थे कि वह सुन नहीं सकते। एक दिन हातिम के पास कुछ लोग दर्शन के लिए पहुँचे। वे बैठे ही थे कि सामने की दीवार पर एक मक्खी मकड़ी के जा़ल में फँस गई और छुटकारा पाने के लिए भिनभिनाने फड़फडा़ने लगी। अचानक हातिम के मुँह से निकला-ऐ लोभ की मारी, अब क्यों भिनभिना रही है? तू शक्कर, शहद और कन्द के लोभ में घूमती-घूमती, मकड़ी के फैलाये जाल में फँस चुकी है, अब उस का परिणाम भुगत। सामने बैठे लोग हैरान परेशान से भौंचक हो सोंचने लगे कि हातिम तो सुन नहीं सकते फिर इन्होंने मक्खी की भिनभिनाहट कैसे सुन ली? सबने पूँछा तो हातिम ने कहा-मैं अपने कानों में बडा़ई या बुराई के शब्द नहीं आने देना चाहता। लोग समझते हैं कि मैं सुन नहीं सकता। इसका लाभ यह है कि सब मेरे से बेकार की बातें नहीं करते। इस तरह मैं बुरे शब्द सुनने से बच जाता हूँ। इसी तरह यदि कोई मेरे दोषों के बारे में आपस में चर्चा करता है तो मैं उन्हें चुपचाप दूर करने का प्रयत्न करता हूँ। सभी धर्मग्रन्थों में किसी की निन्दा करने या सुनने तथा दोष दर्शन की वाणी, नेत्रों और कानों का पाप कहा गया है। यदि दोष ढूँढना ही है तो अपना दोष तलाश कर उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिये। संत कबीर ने कहा है कि-बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय, जो दिल खो़जा आपनों, मुझसे बुरा न कोय।
राष्ट्रीय अध्यक्ष जय शिवा पटेल संघ
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