नन्दिनी और माता तारा


राज शर्मा, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।


नन्दिनी माता महामाया तारा की परम् भक्तन थी । नित प्रतिदिन वह भोर के समय घाट से जल लेने गयी । रुको! अचानक नन्दिनी सहम गई कि इतने सुबह घनघोर अंधकार में कौन मुझे आवाज़ दे रहा है। वृक्ष की शाखा से एक भीमकाय मानव को उतरते हुए वह डर गई। रुको! पास...मत.... आना...देखो...मैं कह रही हूं...पास...मतआना, परन्तु वह भीमकाय नन्दिनी को कंधों पर उठाकर मुंडेश्वर भैरव के समक्ष ले गया। वह उस दिन एक अघोर तांत्रिक यज्ञ रचा रहा था, जिसका मकसद अपार शक्ति प्राप्त करना था। मुंडेश्वर ने अपनी परिचायिकाओं को आदेश दिया कि नन्दिनी को षोडश श्रृंगार सहित सजा कर मण्डप में ले आओ।



डरी सहमी सी नन्दिनी इन सब बातों से अनविज्ञ थी कि अगले पल में उसके साथ क्या होने वाला था। नन्दिनी को श्रृंगारित करके मण्डप के समीप पाटे की ओर संकेत किया। अब तो नन्दिनी के मानो पैरों तले जमीन खिसक गई हो। ये मुंडेश्वर तो नन्दिनी को बलि के लिए माता भैरवी को अर्पित करना चाहता था, क्योंकि नन्दिनी स्वयं एक सिद्ध साधिका रही थी माता तारा की। वह इस बलि के माध्यम से नन्दिनी की तपोऊर्जा स्वयं में समाहित करने चाहता था तन्त्र विद्या के बल पर। नंदिनी ने जब देखा कि अब प्राण संकट में पड़ चुके हैं, तो नन्दिनी ने तुरंत माता तारा को पुकारा। कहते हैं कि उसी तन्त्रपीठ की माता भैरवी की मूर्ति से तत्क्षण माता तारा का प्राकट्य हुआ और अट्हास करते हुए मुंडेश्वर सहित उसके सभी शिष्यों की भी एक ही प्रहार से मंडियों धड़ से अलग कर दिए। नन्दिनी को माता तारा ने असीम शक्तियां प्रदान की और संकट में इसी तरह प्रकट होने का आशीर्वाद दिया।


सार : किसी को कष्ट देने से आज तक किसी का भी कार्य सार्थक नहीं हुआ है। जब-जब किसी सच्चे साधक को किसी दुष्ट हैवानों ने कष्ट पहुंचाना चाहा तो साधकों की तपोमयी ऊर्जा के कारण उसका विनाश तत्क्षण हुआ है।



संस्कृति संरक्षक, आनी (कुल्लू) हिमाचल प्रदेश


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