यूँही कोई बेवफा नहीं होता


कुंवर आर.पी.सिंह, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

 

मन आज दुःखी भी है व्यथित भी। ग्वालियर महराज ज्योतिरादित्याराज सिंधिया के मन से निकले ये उद्गार उनकी कश्मकश और पीड़ा को बयान करने के लिए काफी हैं। 18 वर्षों तक कांग्रेस में रहकर एक सशक्त और जनाधार पृष्ठभूमि वाले युवा महाराज का पिछले 18 महीनों में दल बदलना कितना मुश्कलों भरा निर्णय है, यह भी उनकी वाणी और संदेश मे स्पष्ट झलकता है।

जानकारों की मानें तो सिंधिया जी की खटपट विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण को लेकर ही दिग्विजय से शुरू हो गयी थी। वो जहाँ अपने समर्थकों और क्षेत्र के लोगों को ज्यादा टिकट चाहते थे, वहीं कमरनाथ दिग्विजय अपने अपने लिये ज्यादा टिकट मांगकर अपना पक्ष मजबूत करने की कोशिश में लगे थे। चुनाव में कांग्रेस ने सिंधिया के नये युवा चेहरे को आगे करके चुनाव प्रचार किया, पर जीतने पर कमाऊँ पूत कमलनाथ को दिग्विजय की पैरवी पर मुख्यमंत्री बनाया गया। इससे एक ओर जहाँ ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थको को धक्का लगा, वहीं दूसरी ओर कमलनाथ दिग्विजय जोड़ी विजेता की भूमिका में आ गई। नतीजा यह हुआ कि सिंधिया की म.प्र.में उपेक्षा शुरू हो गयी और कुछ घटनाक्रम ऐसे हुये जिनसे कटुता और बढ़ती गयी।

हाल ही में कुछ किसानों और नौजवानों की माँगों के संदर्भ में जब सिंधिया ने सड़को पर उतरने की चेतावनी दी तो कमलनाथ ने अहंकार में उतर जाओ का चैलेन्ज देकर आग में घी डालने का काम किया। कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व की अकर्मठता से उत्साहित कमलनाथ और दिग्विजय ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को पहले प्रदेश अध्यक्ष बनने से रुकवाया और अब राज्यसभा सदस्यता की राह भी लगभग बन्द कर दी थी। 

इन हालातों में ज्योतिरादित्य को यह भी एहसास हुआ कि शायद उनको लोकसभा चुनाव हरवाने में भी इन्हीं शक्तियों का हाथ रहा होगा। चारों तरफ से पार्टी में अपने लिये खत्म होते अवसरों और पार्टी नेतृत्व की अदूरदर्शिता ने सिंधिया को अन्ततः यह कदम उठाने को विवश कर दिया कि वह स्वयं और अपने समर्थकों के भविष्य के लिए भाजपा में शामिल हो जायं।  ऐसे में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की यह टिप्पणी सटीक बैठती है कि यूँही कोई बेवफा नहीं होता, कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी।

 

राष्ट्रीय अध्यक्ष जय शिवा पटेल संघ

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