उमा ठाकुर (नद्यैक) द्वारा लिखित पुस्तक महासुवी लोक संस्कृति की समीक्षा, महासू शब्द में बड़ा आकर्षण

धर्मपाल भारद्वाज, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

 

उमा ठाकुर (नद्यैक)  द्वारा लिखित पुस्तक "महासुवी लोक संस्कृति"  जिला शिमला के उपरी पहाड़ी क्षेत्रों की महासुवी बोली में लिखी गई है। इस पुस्तक का विमोचन विगत 6 जनवरी 2020 को विश्व पुस्तक मेला, न‌ई दिल्ली में हुआ था। सौभाग्य से मुझे भी कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिल गया। मैं बड़ा 'स्लो रीडर' हूं। क‌ई बार तो मैं सप्ताह भर के अखबार एक साथ पढ़ता हूं, वो भी सरसरी तौर पर। लेकिन इस किताब को मैंने दो सिटिंग में पढ़ लिया। मेरा ख्याल है कि जो 'एवरेज रीडर' हैं, वो किसी उपन्यास की तरह एक सिटिंग में ही यह किताब पढ़ सकते हैं। बस उन्हें पहाड़ी बोली की थोड़ी बहुत समझ होनी चाहिए। यह पुस्तक बहुत ही सरल बोली में लिखी गई है। मुझे आश्चर्य हुआ कि पहाड़ी भाषा इतनी सरल और सुबोध कैसे हो सकती है? पेपर बैक कवर के पिछले पृष्ठ पर जब लेखिका का प्रोफाइल देखा तो ज्ञात हुआ कि लेखिका आकाशवाणी शिमला से विगत कई वर्षो से जुड़ी हैं और महासुवी बोली में कार्यक्रमों का संचालन एवं प्रसारण करती रहीं हैं। रेडियो पर ठेठ भाषा का प्रयोग नहीं किया जाता, अपितु भाषा को ऐसा रूप दिया जाता है, जिसे सभी लोग समझ सकें। यही समझिए कि यह पुस्तक रेडियो की भाषा में लिखी गई है, जिसे जो भी पढ़ेगा समझ जायेगा।


महासू शब्द में बड़ा आकर्षण है। इस शब्द का उद्भव महाशिव से हुआ है, जिन का वास यहां की हिमानियों पर है। शिवरात्रि इसलिए यहां का सब से बड़ा त्योहार है। इस त्योहार में महाशिव की पूजा साकार रूप में की जाती है। शिव जी पाहुने के रुप में घर घर आते हैं। उन के स्वागत में तरह तरह के पकवान बनाए जाते हैं। शाम को पूजन और भोजन करके, गांवों में लोग किसी एक घर में इकट्ठा होकर रातभर नाचते गाते हैं। ब्रह्म अखाड़ा लगाते हैं। आप किताब पढ़िए तो सही, आप को विदित होगा कि लोग यहां किस तरह से त्योहारों का आयोजन करते हैं, क्या गाते हैं, यह सारे गीत इस तरह से लिखे गये हैं कि यदि आप नें कभी यह गीत कहीं सुने हों तो आप इन्हें पढ़ते हुए इन की लय में सराबोर हो जायेंगे। इन्हें लिपीबद्ध करते हुए लेखिका यहां स्वयं उदघोषक हो गई हैं। इस किताब में पूर्व की शिमला हिल स्टेट्स के इतिहास के साथ यहां की भौगोलिक स्थितियों, परम्पराओं, त्योहारों, वेशभूषा, पकवानों, विभिन्न संस्कारों, लोकगीतों और पर्यटन की संभावनाओं इत्यादि पूरे परिवेश को चैप्टर वाइज़ समेटा गया है। जब आप त्योहारों के बारे में पढ़ते हैं तो एक चित्र सामने खिंच जाता है और जब पकवानों के बारे में पढ़ते हैं तो आप पूरी रैसिपी जान लेते हैं। लेखिका नें बड़े श्रम से 140 पृष्ठों में वह सब समेट लिया है,  जो आप महासू क्षेत्र के बारे में जानना चाहते हैं। यहां को बोली के बारे में जो कुछ कोस के बाद बदलती रहती है। जैसे कि कोटगढ़ और कोटखाई क्षेत्र। इन के बीच में सवा ग्यारह हज़ार फुट ऊंचा हाटू पर्वत खड़ा है। इस पुस्तक की महासुवी भाषा,  हाटू के इस तरफ की तराई पर बसे कोटगढ़ में बोले जाने वाली कोटगढ़ी या पूर्व सधोची मिश्रित है। यह तराई क्षेत्र नीचे बह रही सतलुज नदी के बांये तट तक है। हाटू लांघ कर उस तरफ निकल जाओ तो कोटखाई क्षेत्र में पहुंच गए, जो नीचे तक पब्बर और उसकी सहायक नदियों के मध्य अवस्थित है। यहां, हाटू से उतरते ही कपड़े पर दर्ज़ी का कट कुछ अलग तरह से लगता है। बोलने के लहज़े में अन्तर आ जाता है। कोटगढ़ में चिभ्बड़े से लगी खड्ड पार की, आप कुमारसैन पहुंच गये। लहज़ा बदल गया। शिमला जाते हुए कोटगढ़ और कोटखाई की सड़कें ठियोग में कैंची की तरह मिल जाती हैं। यहां लहज़ा और बोली भी मिल जुल जाती है। यह सब इस पुस्तक में है। मैं सिर्फ 'हाई लाइट्स' बता रहा हूं। इस लिए कि जिला शिमला के लोगों को तो यह किताब पढ़नी ही चाहिए। हां, बहुत से लोगों नें विभिन्न पुस्तकों में इन के बारे में पढ़ा होगा, लेकिन अपनी भाषा की मिठास वही जान सकेंगे, जो इसे पढ़ेंगे। हिमाचल के पुनर्गठन से पूर्व शिमला जिले का नाम जिला महासू था। शिमला से उपर अपर महासू नीचे की ओर लोयर महासू। यह महासुवी भाषा उसी अपर महासू की भाषा है।


किसी भी संस्कृति को जीवित रखने के लिए उस की भाषा आनी ज़रूरी है। हमें संस्कृति का संरक्षण नहीं करना है, संवर्धन करना है। संस्कृति कोई अजायब घर में रखने की चीज नहीं है, कि यहां सैंकड़ों वर्षों बाद जन्मने वाले लोग देख सकें कि हम कौन अजूबा थे कि हमारी प्रजाति का क्रमशः विकास कैसे हुआ। लेखिका नें ज़ोर दिया है कि हम कितने भी मॉडर्न हो जायें, अपने बच्चों को अपनी भाषा अवश्य सिखायें। यह घर में स्वयं अपनी भाषा में बातचीत करने से ही हो सकता है। छुट्टियों में अपने बच्चों को गांव लायें। वो अपनी भाषा, संस्कार और संस्कृति को स्वत: ही ग्रहण करते जायेंगे। आप ऐसा करेंगे तो वो भी ऐसा ही करेंगे। हमारी संस्कृति बनी रहेगी।

हमारे प्रदेश के लेखक इस क्षेत्र में प्रशंसनीय काम कर रहे हैं। परन्तु उनकेे लिखे की पहुंच जन सामान्य तक नहीं है। हिमाचल कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी नें इस संदर्भ में महत्वपूर्ण शोध किए हैं, जो पुस्तकों एवं विभाग द्वारा प्रकाशित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आये हैं। लेकिन चंद लोगों के अलावा इनके बारे में किसे पता है। अकादमी एक कस्तूरी मृग की तरह है, जिस के अन्दर शोध का खज़ाना है, जिस पर उसे गर्व है। यह कस्तूरी मृग प्रदेश भर में दौड़ता भी है, कार्यक्रमों का आयोजन भी करता है, जिनमें जानकार लोग ही होते है। लेकिन इस मृग नें अपनी कस्तूरी को जन सामान्य तक पहुंचाने की कोई व्यवस्था नहीं कर रखी। लेखक अपनी पुस्तकों की सीमित प्रतियां ही छापते हैं। उनकी पुस्तक किसी तरह पुस्तकालयों की शैल्फ पर पहुंच जाये, इसी में इतिश्री समझते हैं। क‌ई पुस्तकों में यहां के विभिन्न मेलों का विषद वर्णन है। उन मेलों में विभाग ‌के स्टाल लगाये जाने चाहिए ताकि लोग जान सकें कि उनके बारे में क्या लिखा गया है। प्रदेश के लेखकों की पुस्तकें इन स्टालों पर रखी जानी चाहिए।

यहां तक कि राजधानी शिमला में भी ऐसी कोई दुकान या स्टाल नहीं है, जहां पर प्रदेश से प्रकाशित पत्र पत्रिकाएं और पुस्तकें रखी हों। वर्षों पूर्व माल रोड के आखिर में एक दुकान पर विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिकायें मिल भी जाती थीं, पर अब वह दुकान ही नहीं रही। अकादमी संस्कृति का मात्र संरक्षण भर कर रही है।

यहां सरकारें अधिकतर पर्यटकों को ध्यान में रख कर ही विकास योजनाएं बनाती रही हैं, ताकि हर क्षेत्र तक पर्यटक पहुंच सकें। उन के लिए सुविधाएं विकसित की जा रही है। लेकिन जिस माध्यम से लोग यहां की संस्कृति को जान सकते हैं उसपर सरकार का कितना ध्यान है, उस का अंदाजा इसी से लग है कि जो स्टेट लाईब्रेरी रिज पर थी, जहां लोग दिनभर बैठ कर पढ़ते थे, जो चित्रों में शिमला की पहचान थी उसे अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया गया है। अब शायद यह हैरिटेज इमारत भी पर्यटन को बढ़ावा देने के काम में आये। रिज पर जो बैंड स्टैंड था, उसे पर्यटन विभाग को दे दिया, उन्होंंने उसे आशियाना बना दिया। लेखक लोग वहां कभी कभी मीटिंगे और गोष्ठियां कर लेते हैं। चाय पी लेते हैं, खुश हो जाते हैं। संस्कृति के संवर्द्धन में एक मील का पत्थर लग जाता है। यह मांग क्यों नहीं करते कि भाषा अकादमी का एक स्टाल इस परिसर में हो, जिस में अकादमी के प्रकाशन और यहां के लेखकों की पुस्तकें रखी जायें। पर्यटक भी यहां के बारे में जानना चाहेंगे। जन साधारण को भी प्रकाशन उपलब्ध हो सकेंगे। इस किताब के बहाने इतना कुछ लिख दिया। असल में हर किताब की तरह इस किताब की भी यही पीड़ा है कि किस तरह जनमानस तक यह अपनी पहुंच बनाइए। आप इसकी यह पीड़ा हर सकते हैं, इसे पढ़ कर।

 

कोटगढ़, ज़िला शिमला हिमाचल प्रदेश

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