डा. जगदीश गाँधी, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
समाज में कुछ असाधारण तथा बिरले लोग ही’ रिषि-मुनियों तथा महापुरूषों के रूप में विकसित हुए हैं, जिन्होंने अपनी आत्मा के विकास के लिए कोई नौकरी या व्यवसाय नहीं किया। इन महापुरूषों ने पर्वतों, कन्धराओं, गुफाओं तथा घास-फूस की झोपड़ियों या साधारण परिस्थितियों में रहकर तथा समाज में अत्यन्त सादा एवं सरल जीवन जीकर और व्यापक ‘समाज के लिए उपयोगी बनकर’ समाज की महत्ती सेवा की और इस प्रकार अपनी आत्मा का विकास किया, किन्तु ‘साधारण व्यक्ति’ केवल मजदूरी, किसानी, नौकरी, उद्योग या व्यवसाय के द्वारा समाज के सुचारू रूप से संचालन में तथा उसके विकास में योगदान कर व ‘समाज के लिए उपयोगी बनकर’ ही अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। इसके अतिरिक्त आत्मा के विकास का अन्य कोई उपाय नहीं है।
व्यक्ति यदि नौकरी या व्यवसाय के द्वारा अपनी आजीविका नहीं कमायेगा तो अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे करेगा? अपनी स्वयं की कमाई न होने की स्थिति में व्यक्ति या तो भीख मांगेगा या दूसरों की कमाई खायेगा, या चोरी बेईमानी की रोटी खायेगा या आत्महत्या कर लेगा। यह सब पाप है। ऐसी कोई नौकरी या व्यवसाय नहीं करना चाहिए जो आत्मा के विकास में बाधक हों। अतः ईमानदारी और परिश्रम से नौकरी या व्यवसाय करके ‘समाज के लिये उपयोगी बनना’ ही आत्मा के विकास का एकमात्र उपाय है। बच्चों को ऐसी गुणात्मक शिक्षा दें जिससे कि वे सशक्त समाज के निर्माण व विकास में अपना योगदान कर सकें।
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका ईमानदारी से कमाने के लिए कोई न कोई छोटे से छोटा या बड़ा अपना उद्योग, व्यवसाय, नौकरी या मेहनत मजदूरी करना, अखबार बेचना, जूतों में पालिश करना, ठेेला लगाना, कुली का कार्य करना, कमजोर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना, रिक्शा चलाना आदि-आदि कोई न कोई कार्य अवश्य करना चाहिये। दूसरों की कमाई खाने या झूठ और पाप की कमाई खाने से हमारी आत्मा कमजोर होती है। जबकि छोटे से छोटा परिश्रम व ईमानदारी से कमाया हुआ एक पैसा भी हमारी आत्मा के विकास में सहायक होता है।
अनेक लोग पवित्र सेवा भावना से सरकारी, प्राइवेट या समाज सेवी संस्थाओं में नौकरियाँ करते हैं या किसानी, मेहनत-मजदूरी का कोई कार्य करते हैं। जैसे- खेतीबाड़ी, शिक्षा, न्यायिक, प्रशासनिक, सफाई, यातायात, मीडिया, चिकित्सा, रेलवे, पुलिस, सेना, बैकिंग, जल संस्थान, बिजली, सड़क, निर्माण आदि विभागों में कार्यरत रहते हुए जनता को अनेक प्रकार की जन सुविधायें उपलब्ध कराते हैं और समाज का संचालन एवं सुचारू व्यवस्था बनाने में अपना योगदान करते हैं, किन्तु जो व्यक्ति अपने कार्यों को जनहित की पवित्र सेवाभावना से न करके निपट अपनी आजीविका कमाने की भावना से करते हैं वे स्वयं ही अपनी आत्मा का विनाश कर लेते हैं।
एक उद्योगपति पवित्र मन से समाज के लिये उपयोगी वस्तुओं जैसे कपड़े का निर्माण करके या एक व्यवसायी आम लोगों को दैनिक उपयोग की वस्तुऐं जैसे जनरल मर्चेन्ट, दवाईयाँ स्टेशनरी आदि को जहाँ बनती है वहाँ से एकत्रित करके उनके निवास के आसपास उपलब्ध कराके जन सुविधायें प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए एक छोटी सी किराने की दुकान करने वाला अन्य अनेक सामानों के साथ एक छोटी सी सुई भी अपनी दुकान में रखता है। यदि वह ऐसा न करता तो हमें एक सुई को भी खरीदने के लिए अपने नगर से काफी दूर स्थित दूसरे नगर में जहाँ सुई की फैक्टरी स्थित है वहाँ जाना पड़ता। यदि फैक्ट्री कपड़ा न बनाये तो समाज की क्या स्थिति होगी?
परिश्रम, ईमानदारी व जनसेवा की भावना से मजदूरी, मेहनत, नौकरी, व्यवसाय या उद्योगों के द्वारा आजीविका कमाने वाले व्यक्ति समाज के सुचारू रूप से संचालन में व इसकी व्यवस्था बनाने में तथा इसके विकास में सहायक हैं। अतः ऐसे सभी व्यक्ति समाज के लिये श्रद्धा एवं सम्मान के पात्र हैं! अन्य कोई नहीं।
आज मनुष्य उहापोह, अनिश्चय एवं संशय की स्थिति में रह रहा है। और निरन्तर यह प्रश्न हर व्यक्ति को अंदर से सदैव परेशान करता रहता है कि क्या नौकरी, उद्योग या व्यवसाय हमारी आत्मा के विकास में सहायक है या बाधक है? परमात्मा ने मनुष्य को स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है। वह चाहे तो प्रभु की प्रसन्नता के लिए जन सेवा के पवित्र उद्देश्य से अपनी आजीविका का उपार्जन मजदूरी, किसानी, नौकरी उद्योग या व्यवसाय के द्वारा करके ‘अपनी आत्मा का विकास करले’ या फिर चाहे तो ‘जनसेवा की पवित्र भावना से रहित’ केवल अपनी आजीविका कमाने के लिए मजदूरी, किसानी, नौकरी या व्यवसाय करके अपनी आत्मा का विनाश कर ले?
क्या नौकरी, उद्योग धंधे या व्यवसाय जैसे भी चलता हो वैसे ही चलने दें। तथापि यदि उसमें कामचोरी, असावधानी, पाप और अपराध भी करना पड़े तो क्या उसे करते रहें और आत्मा के विकास के लिए और कुछ करें? जैसे - भजन-कीर्तन करना, यज्ञ-हवन करना, गंगा में डुबकी लगाना, तीर्थ करने जाना, कुछ पंडितों को हर साल भोजन कराना आदि-आदि। केवल पवित्र मानव सेवा की भावना से जो कार्य किया जाता हैं उससे ही आत्मा का विकास होता है न कि किसी भी अन्य तरीके से।
केवल मनुष्य ही अपनी आत्मा का विकास कर सकता है, पशु नहीं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार परमात्मा ने दो प्रकार की योनियाँ बनाई हैं। पहली मनुष्य की योनि एवं दूसरी पशु योनि। चैरासी लाख ‘‘विचार रहित पशु योनियों’’ में जन्म लेेने के पश्चात ही परमात्मा कृपा करके मनुष्य को ‘‘विचारवान मानव की योनि’’ देता है। इस मानव जीवन की योनि में मनुष्य या तो अपनी विचारवान बुद्धि का उपयोग करके व नौकरी या व्यवसाय के द्वारा या तो अपनी आत्मा को पवित्र बनाकर परमात्मा की निकटता प्राप्त कर ले अन्यथा उसे पुनः चैरासी लाख पशु योनियों में जन्म लेना पड़ता हैं। इसी क्रम में बार-बार मानव जन्म मिलने पर भी मनुष्य जब तक अपनी ‘विचारवान बुद्धि’ के द्वारा अपनी आत्मा को स्वयं पवित्र नहीं बनाता तब तक उसे बार-बार 84 लाख पशु योनियों में ही जन्म लेना पड़ता हैं। और यह क्रम अनन्त काल तक निरन्तर चलता रहता हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को जब कोई भी नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने नाव चलाकर, जूतों पर पालिश करके एवं अखबार बेचकर व रद्दी की दुकान पर नौकरी करके ईमानदारी से अपनी आजीविका कमाई और अपनी आत्मा को विकसित किया। ईमानदारी और अति कठोर परिश्रम से अपनी आजीविका कमाते हुए समाज सेवा के अति महत्वपूर्ण कार्य को करके वे अमेरिका जैसे बड़े देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए और गुलामी प्रथा को समूल नष्ट किया, अमेरिका से काले-गोरे व्यक्तियों के भेदभाव को समाप्त किया और सारे संसार में जनतन्त्र स्थापित किया। इसलिए आइये, अपनी आत्मा के विकास के लिये हम भी पवित्र मन से उपयोगी बनें।
आप देखें, संत रैदास कभी मंदिर-मस्जिद गिरजे-गुरूद्वारे नहीं जाते थे और न पूजा-पाठ करते थे। रैदास जूते बनाकर अपनी आजीविका चलाने वाले एक व्यवसायी थे। पूरे मनोयोग एवं अति परिश्रम से जूते बनाते समय उनकी भावना यह रहती थी कि जो भी उनका जूता खरीदे, उसे जूता पहनकर किसी भी प्रकार की तकलीफ न हो तथा जूता आरामदेय हो। साथ ही उनका बनाया जूता टिकाऊ हो ताकि ग्राहक को बार-बार पैसा न खर्च करना पडेघ्। रैदास जूता में आयी लागत में अपना उचित लाभ जोड़कर उसे एक दाम में बेचा करते थे। उनकी इस पवित्र भावना के कारण ही स्वयं भगवान की कृपा से उन्हें संत रैदास की उपाधि मिली।
कबीर एक जुलाहे थे। वह अपनी आजीविका कमाने के लिए कपड़ा बुनने का कार्य बड़ी ही लगन तथा सेवा भाव से करते थे। कबीर अपने जुलाहे के कार्य को पूरी लगन, मेहनत और तन्मयता से करते थे तथापि उनकी दृष्टि चादर बुनते समय इस बात पर रहती थी कि चादर में लगने वाला एक भी धागा कमजोर न हो तथा वह बीच से टूटने न पाये ताकि चादर बहुत मजबूत बने और वह चादर जल्दी न फटे और जो ग्राहक उसे खरीदकर ले जाये उसके यहाँ वह चादर बहुत दिन चले और ग्राहक को बार-बार पैसे न खर्च करने पड़े। उन्होंने अपने व्यवसाय के द्वारा ही आत्मा का विकास किया और संत कहलाये।
राष्ट्रपति डा0 राधाकृष्णन एक शिक्षक की नौकरी करके अपनी आजीविका कमाते थे। उन्होंने एक आदर्श शिक्षक का आचरण करते हुए अपनी आत्मा का विकास किया। वह पूरे मनोयोग से बहुत दिल लगाकर अपने विषय को विद्याथियों को पढ़ाते थे तथा विषय की अच्छी पढ़ाई के साथ ही साथ विद्यार्थियों को आध्यात्मिक शिक्षा भी देते थे। इस कारण वे अपने विद्यार्थियों के बीच अत्यन्त लोकप्रिय शिक्षक बन गये। उन्होंने अपनी नौकरी के द्वारा ही अपनी आत्मा का विकास किया।
हाँ! व्यापार से नहीं वरन् अधिक से अधिक लाभ कमाने की नियत से, नकली को असली वस्तु बताकर बेचने से तथा मिलावट करने और कम तौलकर देने और उसके पूरे दाम वसूलने से आत्मा कमजोर होती है। यदि हम व्यापार के नाम पर जुआ-सट्टा खिलायें, गंदे सिनेमा बनायें, वैश्या वृत्ति को बढ़ावा दें, शराब बनाने का धन्धा करें तो इस तरह के मानव अहित के एवं समाज विरोधी व्यवसाय करने से हमारी आत्मा का विनाश होता है। ईमानदारी तथा सेवाभाव से की गई लोक हितकर नौकरी या व्यवसाय के अलावा आत्मा के विकास का और कोई उपाय नहीं है।
माता-पिता, शिक्षक तथा समाज की गलत सीख के कारण यदि किसी व्यक्ति अर्थात मजदूर, नौकर, अधिकारी, व्यवसायी तथा उद्योगपति का जीवन विकृत हो जाये तब भी क्या ‘मनुष्य’ अपनी चिन्तनशील बुद्धि से विचार करके अपने चिन्तन और दृष्टिकोण में कभी भी परिवर्तन कर सकता है? गुणात्मक शिक्षा और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गुणात्मक शिक्षा एवं अध्यात्म के द्वारा ‘विचारवान मनुष्य’ अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। ‘गुणात्मक शिक्षा का एक ही काम है मनुष्य को ‘प्रभु की इच्छा’ का ज्ञान कराकर सही मायने में शिक्षित करना’। क्योंकि जिस व्यक्ति को प्रभु की इच्छा या प्रभु की शिक्षाओं का ज्ञान नहीं होता वह अशिक्षित ही है। अतः माता-पिता तथा शिक्षकों को भौतिक शिक्षा के साथ ही साथ ‘बाल्यावस्था से ही बालक को प्रभु इच्छाओं और आज्ञाओं का ज्ञान भी कराना चाहिये’ ताकि मानव जीवन संतुलित रूप से विकसित हो सके। अध्यात्मक एवं गुणात्मक शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली एक सतत् प्रक्रिया है। इस नये युग की सर्वाधिक आवश्यकता अध्यात्म तथा गुणात्मक शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने की है।
संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ