(कुंवर आर.पी.सिंह), शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
प्रयाग में महाकुंभ चल रहा था। संगम के सामने मैदान में कन्नौज के महाराजा हर्षवर्धन अपने शिविर में विराजमान थे। वहां अनेक राज्यों के राजा महाराजा उस दिन धर्म सभा में आए हुए थे। महारिजा के साथ ही मुख्य अतिथि के रूप में सिंहासन के पास चीन के धर्म दूत व्हेन-सॉन्ग भी बैठे हुए थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग महाराजा हर्षवर्धन की प्रशस्ति प्रस्तुत करते हुए कहना शुरू किया कि महाराज ने पिछले 5 वर्ष में संचित धन कुंभ पर्व पर दान कर दान -शीलता का एक अनूठा आदर्श उपस्थित किया है। इनके जैसा दानवीर इस समय संपूर्ण पृथ्वी पर दूसरा कोई नहीं है। अचानक धर्म- सभा में एक याचक खड़ा होकर बोला- महाराज भले ही आपने अपनी तमाम संपत्ति दान कर दी, परंतु मैं तो अभी तक वंचित ही हूं।
उसकी बात सुनकर मंच पर एकाएक सन्नाटा छा गया। लोग एक दूसरे को देखने लगे। सहसा महाराजा हर्षवर्धन खड़े होकर बोले-विप्रवर! अभी तो मेरे पास स्वर्ण मुकुट बचा है, आप इसे स्वीकार कीजिए। कहते-कहते महाराजा ने याचक के निकट आकर अपना मुकुट उसके हाथों में रख दिया। इसके बाद महाराजा ने अपने मंत्री से कहा-प्रयाग के पावन संगम तट पर हमें सब कुछ दान कर बिल्कुल खाली हाथ लौटना है। किसी वस्तु को अपने साथ नहीं ले जाना है। उपस्थित सभी लोग महाराजा हर्षवर्धन की अनूठी दान शीलता तथा धन संपत्ति के प्रति विरक्ति भावना को देखकर बेहद प्रभावित हुए और उनकी जय-जयकार करने लगे। हालांकि ऐसे महादानवीर सहृदय महाराजा हर्षवर्धन का उनके ही राज्य कन्नौज में बुद्धपूर्णीमा के पावनपर्व पर प्रत्येक वर्ष की भाँति ही भरे दरबार में बौद्ध भिक्षुओं को एक एक स्वर्ण मुद्रा दान देने के दौरान उनके ही दुष्ट ब्राह्मण अंगरक्षक सिपाही ने भरी सभा में खंजर मारकर हत्या कर दी थी, लेकिन घायल महाराज ने उसे मृत्यु दण्ड ना देने का आग्रह कर उस नीच पापी को प्राणदान दिया था। उस दुःखद घटना के समय वहाँ चीनी यात्री ह्वेन सांग भी मौजूद थे।