तकनीकी कारणों से 20 अक्टूबर के बाद से क्षत्रप्रभाकर का प्रकाशन नहीं किया जा सका, इसके लिए खेद है। अब पुनः क्षत्रप्रभाकर का प्रकाशन आपके सम्मुख प्रस्तुत है।
सम्पादक
गतांक से आगे.....
पारस आदि अन्य प्राचीन देशों का तीन-तीन, चार-चार सहस्र वर्ष तक का जैसा अविच्छिन्न सम्भावित इतिहास मिलता है, वैसा हमारे देश का इतिहास कही लिखा नहीं मिलता है। अनेक इतिहासवेत्ताओं के लेख प्रतिपादन करते हैं कि अब से लगभग एक सहस्र वर्ष पूर्व भारत देश में वह दुर्घटना हुई कि जिसमें वास्तविक क्षत्रिय तथा भूपाल गण लगभग दो सौ वर्ष तक संग्राम में प्रवृत्त रहकर हताहत हुए और उनके रिक्त सिंहासनों पर राजपुत्र कहलाने वाले शकसिथियन आदि वैदेशिक लोग अधिकार प्राप्त करके भारत में प्रबल शासक हो गये। इन लोगों ने प्राचीन क्षत्र कीर्ति स्तम्भ राजभवन आदि का विनाश कर दिया, जिससे क्षत्रिय समुदाय छिन्न-भिन्न हो गया। अवशिष्ट क्षत्रियों को अपना इतिहास स्वयं लिखने या लिखवाने का अवसर नहीं मिला और भारतीय इतिहास जन तो केवल क्षत्र जाति के भूपालों के अधीन रहना पसन्द करते थे। अतः नवीन शासकों ने यथाशक्ति प्रयत्न किया कि लोग उन्हीं को क्षत्रिय मानें और लिखें। उक्त दुर्घटना का वास्तविक वृतान्त न मिलने के कारण कतिपय इतिहास लेखकों को यह मानना पड़ा कि वास्तविक क्षत्रियों के वंशधर अब नहीं हैं। यद्यपि प्रिवि कौन्सिल में माना गया है कि भारतवर्ष में अब भी क्षत्रियों का अस्तित्व है और ''कलावाद्यन्तयोः स्थितिः'' यह कथन प्रमाणरहित है। कलौमध्य द्वयो स्थिति के समान। चाटुवादी या मिथ्या प्रसंशक लोगों ने लोभ आदि वश जो वृतान्त अपने आश्रयदाताओं के सम्बन्ध में कल्पना के आधार पर लिखे हैं, सो कदापि प्रमाण के योग्य नहीं हैं, किन्तु इतिहास के लिए हानिकारक अवश्य हैं और आजकल अनेक जन कृत्रिम क्षत्रियत्व प्रचार को प्रबल करने के लिए मनमाने लेख प्रकाशित करने में लगे हैं, सो क्षत्रवंश के लिए हानिकारक हैं। तथापि साहस व परिश्रम से अनेक बाधाओं की उपस्थिति में भी पुरावृत्त के साथ-साथ यह प्रतिपादन किया जा सकता है कि वास्तविक आर्य क्षत्रिय कौन हैं।
(क्रमशः)