चौधरी चरण सिंह ने की थी पिछड़े वर्ग के वैचारिक दिवालिएपन की सबसे सटीक व्याख्या


(प्रभाकर सिंह), शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।

पिछड़े वर्ग के वैचारिक दिवालिएपन की सबसे सटीक व्याख्या चौधरी चरण सिंह ने की थी। उनके अनुसार पिछड़ा वर्ग किसी जाति का नहीं, बल्कि एक सोच का नाम है। जिस दिन इसकी सोच से पिछड़ापन हट जाएगा, उसी दिन यह कौम अगड़ी हो जाएगी। जिंदा कौमें वैचारिक रूप से स्पंदित होती हैं। उनमें चेतना के लक्षण होते हैं। आत्मश्लाघा, आत्मप्रवंचना की जगह उनमें आत्मालोचना की प्रवृत्ति होती है, भूत के बजाय वर्तमान और भविष्य पर निगाहें होती हैं, परिस्थितियों के अनुसार रणनीति बदलने की क्षमता होती है।चूंकि ये सब पिछड़े वर्ग में नहीं हैं, इसलिए यह एक सोती हुई कौम है। थोड़ा और साफ शब्दों में कहें तो यह एक मरी हुई कौम है, इसलिए इस वर्ग की दशा-दिशा दूसरे लोग अपने मुहूर्त के हिसाब से करते हैं। पिछड़ा उस मुहूर्त में ही अपना शंखनाद करता है। जरा याद करें 1990 का वह दौर, जब वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग लागू किया। पहली बार पिछड़ा वर्ग थोड़ी मात्रा में ही सही, अपने हक-हकूक के लिए लामबंद हुआ। एक वर्ग के रूप में हम एक हैं, हमारी सामाजिक समस्याएं एक हैं और हम एक होकर ही अपनी लड़ाई लड़ सकते हैं- यह अहसास पहली बार कौंधा। लेकिन संघ खेमा इससे परेशान हुआ। सके मुहूर्त पर आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या की हुंकार भरी और देखते-देखते पूरा देश मंडल से कमंडल हो गया। पिछड़े वर्ग के लोग इस चालबाजी को नहीं समझ सके और कारसेवा करने अयोध्या निकल पड़े। वहां पर मरने वाले, घायल होने वाले सब पिछड़े लोग थे। उस इमारत के गिरने पर कुर्सी गंवाने वाले कल्याण सिंह भी पिछड़ा वर्ग के थे। जीतने वालों में थे संघ और कुर्सी पाने वालों में थे वाजपेयी। शहीद जगदेव प्रसाद हों या कपरूरी ठाकुर, रामस्वरूप वर्मा हों या ललई सिंह यादव, चन्द्रजीत यादव हों या मुलायम सिंह, इनमें से किसी ने भी अपने जैसा दूसरा वारिस नहीं छोड़ा। नतीजा इनके साथ ही आंदोलन आखिरी सांसें लेता है। पिछड़े वर्ग के कमेरा समाज ने हिंदुस्तान की तस्वीर मुकम्मल बनाने में अपने श्रम की बूंदों की कुर्बानी दी है।

विवेकानंद के अनुसार बिना कुम्हारों के अलावा, हलवाहों के पसीने की बूंदों के असली भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन उसे खुद इसका अहसास नहीं है, इसलिए यह तबका मजामारू ब्राrाण और सामंती क्षत्रिय बनने की ललक लिए फिरता है। अहम पिछड़ा वर्ग का सबसे बड़ा दुगरुण है। यादव समाज खुद को पिछड़े वर्ग का ब्राह्मण मानता है। पिछड़े वर्ग के लिए यह सबसे ज्यादा लड़ाई लड़ता है, लाठियां खाता है, लेकिन वह शेष जातियों से अपने को रब्त-जब्त नहीं कर पाता। यहीं उसकी कुर्बानी डूब जाती है। कुर्मी समाज के साथ दूसरी समस्या है। वह यादव समाज को धोबीपाट देने में ही अपनी उर्जा जाया करता है। वह सब जगह रह सकता है, लेकिन वहा लेकिन वहां नहीं रहेगा जहां यादव रहेंगे। शाक्य-मौर्य-कुशवाहा-सैनी समाज पिछड़े वर्ग का सबसे बौद्धिक तबका है, लेकिन उसके दिमाग का इस्तेमाल पिछड़ा वर्ग नहीं करता है, फलत: यह वर्ग कभी दलितों के खेमे में रहता है, तो कभी सवर्णो के खेमे में। शेष अतिपिछड़ी जातियां भी अपने-अपने फायदे-घाटे के अनुसार खेमा तय करती हैं।

पिछड़े वर्ग के लोग सामाजिक या आर्थिक रूप से दलितों के सबसे करीब थे। सामंती अत्याचार से त्रस्त दलितों ने हमेशा पिछड़े वर्ग के चौधरियों के यहां सुकून पाया, लेकिन पिछड़ा वर्ग दलितों से कोई गठबंधन नहीं कर सका। इसलिए दलित ब्राrाणों के खेमे में चला गया, जिसका नुकसान सिर्फ और सिर्फ पिछड़ा वर्ग उठा रहा है। 1993 में कांशीराम के प्रयासों से यह गठबंधन उत्तर प्रदेश में एक जमीनी हकीकत बना था, लेकिन उस पर दक्षिणपंथी ताकतों की साजिश का ग्रहण लग गया। पिछड़ा वर्ग के नौजवानों को नपुंसक बनाने का काम उसी के बुजुर्गो ने किया है। पिछड़ा वर्ग के बुजुर्ग सवर्ण बुजुर्गो की तरह कभी प्रचारक की भूमिका में नहीं आते। उन्हें हमेशा रामनाम जपते हुए ऊपर चलने की तैयारी रहती है। इसी का नतीजा है कि पद्म पुरस्कारों में, कॉमनवेल्थ की आयोजन समिति में या किसी अन्य राष्ट्रीय पुरस्कार में पिछड़े वर्ग के एक भी व्यक्ति का नाम नहीं है।

देश में पिछड़े वर्ग के आठ मुख्यमंत्री हैं, लेकिन ये विभिन्न पार्टियों के औजार हैं। जाति-जनगणना और महिला आरक्षण के मुद्दे पर ये अपनी विधानसभा में प्रस्ताव तक नहीं कर पाए। वहीं हरियाणा या कर्नाटक में जहां कहीं भी दलित उत्पीड़न की घटनाएं हुईं, दलित मुख्यमंत्री ने लखनऊ से दहाड़ लगाई। पिछड़े वर्ग के वैचारिक दिवालिएपन की सबसे सटीक व्याख्या चौधरी चरण सिंह ने की थी। उनके अनुसार पिछड़ा वर्ग किसी जाति का नहीं, बल्कि एक सोच का नाम है। जिस दिन इसकी सोच से पिछड़ापन हट जाएगा, उसी दिन यह कौम अगड़ी हो जाएगी। यह सवाल हमारे नही समाज के द्वारा आ रही अंदर की आवाज से तैयार किया गया है आप भी अपनी व समाज की आवाज सुन सकते है और लिख सकते है।

रिसर्च स्कॉलर इलाहाबाद विश्वविद्यालय

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