भीष्म कुकरेती, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
यदि हम आकलन करें तो पायेंगे की सन २०१३ की अतिवृष्टि से सर्वाधिक नुकसान नदियों -गाड के किनारे ही हुआ और उन गाँवों में मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं जो कुमाऊं और गढवाल की पहाड़ियों की भौगौलिक परिस्थिति अनुसार नही बने थे I इसी तरह 2025 की धराली में बादल फटने से भयंकर हानि नदी किनारे बसे भवनों का ही हुआI इस साल की उत्तराखंड में अतिवृष्टि जनित त्रासदी में सबसे अधिक हाथ लोक व्यवहार या लोक साहित्य को न समझने की भूल का है I
गढ़वाल में एक कहावत है कि 'गाड मा माछ अर तपड़ा मा कूड़ बिराज ' याने कि नदी में मच्छी और टीले में मकान बिराज देते हैं , अच्छे लगते हैं I इसी क्रम में एक दूसरी कहावत 'गाड मा घट अर छनी बिराज दींदन ' भी संदेस देती है की नदी या गधेरों के किनारे केवल घराट (पनचक्की ) अथवा अंतरिम गौशालाएं ही बनाये जा सकते हैं I जब कि इस साल के विनास अधिक वहीं हुआ जहां नदी तटों पर मकान -दुकान बनाये गये हैं I केदारनाथ मन्दिर मन्दाकिनी और सरस्वती नदी किनारे एक चट्टान पर खड़ा किया गया था किन्तु वहां दुकाने व रिहायसी होटल आदि नदी के अन्दर बनाये गये और अप्राकृतिक विकास से जो त्रासदी हुयी वह सभी को दहला देने के लिए काफी है I इसी तरह रामबाड़ा , गौरी कुंड , उत्तरकाशी, में जो भी मकानों -दुकानो की क्षति हुयी वह नदी के अंदर बनाये गये मकानों -दुकानो की हुयी है I
पृथक उत्तराखंड राज्य मांग के पीछे एक ही मंतव्य था कि उत्तराखंड में हिमालयी प्रकृति अनुसार विकास हो किन्तु उत्तराखंड राज्य में विकास के नाम पर जो अवहेलना लोक व्यवहार की हुयी वह लखनवी सरकार और ब्रिटिश राज में भी नही हुआ I प्रशासन ने नदी के अंदर मकान और दुकाने बनाने के लिए स्वीकृति किस आधार पर दिए होंगे यह विषय अभी भी उत्तरविहीन है और उत्तराखंड में हुए विकास पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है I नदी के किनारे या अंदर जो भी मकान -दुकान बहे हैं वै उथली मिट्टी में बने थे जब कि पहाड़ी क्षेत्र में पारम्परिक नियम है कि गाँव कड़क , कठोर चट्टान के ऊपर ही बसें ना कि धंसने वाली जमीन में I क्या उत्तराखंड के उत्तराखंड में जन्मे अधिकारी नही जानते कि धंसान वाले क्षेत्र की प्राकृतिक पहचान क्या है ? पहाड़ों में बालू , रेत वाली जमीन जिसे डंगुलड्या जमीन कहते हैं वहां मकान क्या गौसाला बनाना भी ताज्य होता है I कुमाओं और गढवाल में दसियों लोक कथन इशारा करते हैं कि Kahan मकान बनने चाहिए और कहाँ नहीं बनने चाहिए किन्तु जब उत्तराखंड के नेता और अधिकारी लोक व्यवहार को त्यागेंगे तो विनास अवश्यम्भावी ही है I मकान बनाने के लिए धरती ही नही अपितु उस धरती पर उगने वाली घास का भी जायजा लिया जाता था किन्तु अब पहाड़ों में जमीन देखी नही कि उस पर मकान बना लिया की प्रवृति ने जन्म ले लिया है I कभी तूंग , सुरै वाली जमीन में मकान कभी भी नहीं बनाये जाते थे किन्तु अब केवल खाली जमीन को देखा जाता है और जमीन के आस पास प्राकृतिक वातावरण की सर्वथा अवहेलना की जा रही है I प्राकृतिक वातावरण हमे संकेत देता था कि यह जमीन मकान बनाने के लायक है कि नही I
पृथक उत्तराखंड राज्य मांग के पीछे एक ही मंतव्य था कि उत्तराखंड में हिमालयी प्रकृति अनुसार विकास हो किन्तु उत्तराखंड राज्य में विकास के नाम पर जो अवहेलना लोक व्यवहार की हुयी वह लखनवी सरकार और ब्रिटिश राज में भी नही हुआ I प्रशासन ने नदी के अंदर मकान और दुकाने बनाने के लिए स्वीकृति किस आधार पर दिए होंगे यह विषय अभी भी उत्तरविहीन है और उत्तराखंड में हुए विकास पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है I नदी के किनारे या अंदर जो भी मकान -दुकान बहे हैं वै उथली मिट्टी में बने थे जब कि पहाड़ी क्षेत्र में पारम्परिक नियम है कि गाँव कड़क , कठोर चट्टान के ऊपर ही बसें ना कि धंसने वाली जमीन में I क्या उत्तराखंड के उत्तराखंड में जन्मे अधिकारी नही जानते कि धंसान वाले क्षेत्र की प्राकृतिक पहचान क्या है ? पहाड़ों में बालू , रेत वाली जमीन जिसे डंगुलड्या जमीन कहते हैं वहां मकान क्या गौसाला बनाना भी ताज्य होता है I कुमाओं और गढवाल में दसियों लोक कथन इशारा करते हैं कि Kahan मकान बनने चाहिए और कहाँ नहीं बनने चाहिए किन्तु जब उत्तराखंड के नेता और अधिकारी लोक व्यवहार को त्यागेंगे तो विनास अवश्यम्भावी ही है I मकान बनाने के लिए धरती ही नही अपितु उस धरती पर उगने वाली घास का भी जायजा लिया जाता था किन्तु अब पहाड़ों में जमीन देखी नही कि उस पर मकान बना लिया की प्रवृति ने जन्म ले लिया है I कभी तूंग , सुरै वाली जमीन में मकान कभी भी नहीं बनाये जाते थे किन्तु अब केवल खाली जमीन को देखा जाता है और जमीन के आस पास प्राकृतिक वातावरण की सर्वथा अवहेलना की जा रही है I प्राकृतिक वातावरण हमे संकेत देता था कि यह जमीन मकान बनाने के लायक है कि नही I
उत्तराखंड के पहाड़ कच्चे पहाड़ हैं और जन संख्या का दबाब नही सहन कर सकते हैं I इसीलिए एक कथन है कि 'बिंडी मौ-मवेसी बौण घाम लगांदन ' याने कि अधिक जनसंख्या व पशु जंगल का नाश करते हैं I यही कारण है कि सदियों से पहाड़ी गाँवों में जनसंख्या दबाब कम करने के लिए दूसरे गाँव स्थापना का रिवाज रहा है I ब्रिटिश काल तक गढवाल -कुमाऊं में घाटी व नदी किनारे जनसंख्या दबाब कम से कम रहा है I इससे बाढ़ और अतिवृष्टि से जान माल का नुकसान कम होता था I यदि नदी किनारे मकान आदि बनाये भी जाते थे तो नदी से दूर टीलों में मकान बनाये जाते थे जैसे देव प्रयाग , व्यास चट्टी , आदि में मकान टीलों पर बने हैं और बाढ़ का खतरा कम रहता है I बद्रीनाथ में माणा व बामण गाँव इसके प्रमाण हैं I किन्तु स्वतन्त्रता उपरान्त लोक कथनों , लोक विश्वासों , लोक ज्ञान के विरुद्ध नदी के अन्दर शहरों या कस्बों का विस्तार हुआ, नदी किनारे जनसंख्या का दबाब बढ़ा और इस तरह उत्तराखंड के प्रशासन व लोगों ने महा विनाश को आमंत्रण दिया I
कुमाऊं और गढ़वाल के हर गाँव में पानी की पवित्रता संबंधी लोक कथाएँ व लोक कथन विद्यमान हैं I जैसे जल स्रोत्र के ऊपरी हिस्से में शौच न करना , स्रोत्र के उपरी क्षेत्र में पेड़ों का ना काटना या रजस्वला स्त्री का कपड़े ना धोना आदि कई कथन व कथाएँ प्रत्येक गाँव में विद्यमान हैं, किन्तु उत्तराखंड समाज व प्रशासन ने अब अपने पुरखों के ज्ञान की तौहीन करनी शुरू कर दी है और हर साल अब हम विनास को आमत्रित करते दीखते हैं I जब भी पहाड़ों में जल की पवित्रता भंग हुयी है तभी जल -तांडव देखने को मिला है I
सभी पहाड़ी गाँव में पेड़ों के प्रति अभ्यर्थना , आदर रहता था जो हमारे लोक कथनों , लोक कथाओं , लोक गीतों व समग्र लोक व्यवहार में प्रलक्षित होता था I अब जंगल बणिक लाभ के लिए अधिक व समग्र मानव हित के लिए कम प्रयोग होते हैं और फिर हम जंगलों की अवहेलना से महा विनास का शिकार बनते हैं I उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी हमने वन संम्बन्धी कोई ठोस योजना व सिद्धांत नही बनाये जो कि उत्तराखंड को विकासोन्मुखी भी बनाये और पर्यावरण को भी बचाए I जंगल के मामले में भी सरकार व समाज ने लोक व्यवहार की तौहीन ही की हैI
कुमाऊं और गढ़वाल के हर गाँव में पानी की पवित्रता संबंधी लोक कथाएँ व लोक कथन विद्यमान हैं I जैसे जल स्रोत्र के ऊपरी हिस्से में शौच न करना , स्रोत्र के उपरी क्षेत्र में पेड़ों का ना काटना या रजस्वला स्त्री का कपड़े ना धोना आदि कई कथन व कथाएँ प्रत्येक गाँव में विद्यमान हैं, किन्तु उत्तराखंड समाज व प्रशासन ने अब अपने पुरखों के ज्ञान की तौहीन करनी शुरू कर दी है और हर साल अब हम विनास को आमत्रित करते दीखते हैं I जब भी पहाड़ों में जल की पवित्रता भंग हुयी है तभी जल -तांडव देखने को मिला है I
सभी पहाड़ी गाँव में पेड़ों के प्रति अभ्यर्थना , आदर रहता था जो हमारे लोक कथनों , लोक कथाओं , लोक गीतों व समग्र लोक व्यवहार में प्रलक्षित होता था I अब जंगल बणिक लाभ के लिए अधिक व समग्र मानव हित के लिए कम प्रयोग होते हैं और फिर हम जंगलों की अवहेलना से महा विनास का शिकार बनते हैं I उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी हमने वन संम्बन्धी कोई ठोस योजना व सिद्धांत नही बनाये जो कि उत्तराखंड को विकासोन्मुखी भी बनाये और पर्यावरण को भी बचाए I जंगल के मामले में भी सरकार व समाज ने लोक व्यवहार की तौहीन ही की हैI
एक कहावत सूनी थी, दुसर अडगैं बीज कुल बिणासI इसका अर्थ है कि यदि दूसरे क्षेत्र से बीज मंगाएं तो कुल बिनास निश्चित है I इस कहावत का सीधा अर्थ है कि आयातित ज्ञान से नुकसान भी हो सकता है I आज उत्तराखंड में आयातित विकास सोच व तकनीक का बोलबाला है और उस सोच को कुचला जा रहा है जो उत्तराखंड के पहाड़ों के लिए बांछित है I उत्तराखंड में हर युग में नई तकनीक को अपनाया जाता रहा है किन्तु उससे पहले तकनीक को पहाड़ों के लायक बदला गया और फिर पहाड़ों के लायक तकनीक को प्रचारित प्रसारित किया गया पारम्परिक मकान , कृषि औजार , हल, फाल, ओखली आदि इसके जीवंत उदाहरण हैं कि भूतकाल में आयातित तकनीक को पहाड़ों के लायक बनाया गया था I किन्तु अब तकनीक को जबरदस्ती पहाड़ों पर थोपा जा रहा है जिसका प्रतिफल केदार घाटी जैसे विनास लीला के रूप में मिलता है I
उत्तराखंड में तो मुख्य मंत्री ही आयतित हैं तो लोक व्यवहार को समझने वाले कहाँ से पैदा होंगे या लोक व्यवहार को महत्व देने वालों की कहां से चलेगी ?
उत्तराखंड में ब्रिटिश काल से सरकारी स्तर पर शिक्षा हुई और यहाँ से लोक व्यवहार, लोक ज्ञान पर शिक्षा की कुल्हाड़ी चलनी भी शुरू हुयी I एक उदाहरण है कि पहाड़ों में लोक कथा और लोक कथन है 'सरगा दिदा पाणी पाणी' I इस कथन में पानी की महत्ता अपने आप झलकती है और जल सरक्षण पर जोर दिया गया है I किन्तु अब अंग्रेजी की किताबों में बच्चों को 'रेन रेन गो अवे' कविता रटाया जाता है जो लोक अपेक्षाओं व लोक आवश्कता के सर्वथा विरुद्ध है I याने कि पहाड़ों में शिक्षा भी उत्तराखंड के पहाड़ों के चरित्र अनुसार नही हैI जब शिक्षा में स्थानीयता लुप्त हो तो वह शिक्षा स्थानीय विकास को बढ़ाने में कारगर साबित होगी ही नही अपितु कई अन्य विनाशकारी माध्यमों को जन्म देगी I
उत्तराखंड में शहरीकरण बहुत तेजी से हो रहा है और शहरीकरण योजना अनुसार नही हो रहा है अपितु आनन -फानन रीति से हो रहा है I फलत: पहाड़ी स्थान जो जनसंख्या व विकास के साधनों /माध्यमो के भार को सहन नही कर सकते वे पहाड़ उजड़ रहे हैं और विनास को न्योता दे रहे हैं I कोई भी लक्ष्य पाने के लिए माध्यम सही होने चाहिए और साधन , माध्यम या पथ की पवित्रता लक्ष्य से अधिक महत्वपूर्ण होती है I किन्तु उत्तराखंड में विकास के माध्यम तो मध्य हिमालयी पर्यावरण के विरुद्ध हैं तो यह विनास लीला अवश्यम्भावी ही थी I पहाड़ तोड़ने के लिए बम प्रयोग होंगे तो उजड़ -विजड होंगे ही I यदि स्थानीय पर्यावरण के अनुसार विकास न किया जाय तो विकास विनास को ही जन्म देगा I
आजकल हिमालयी विकास को आंकने का मापदंड ग्रौस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (GDP ) के स्थान पर ग्रौस इनवाइरेनमेंट प्रोडक्ट इंडेक्स (GEP) की वकालात जोर मार रही है और हिमालय सरोकार के विद्वान डा अनिल जोशी का कहना है हिमालय में केवल ग्रौस इनवाइरेनमेंट प्रोडक्ट इंडेक्स ही मान्य माना जाना चाहिए I ग्रौस इनवाइरेनमेंट प्रोडक्ट या (GEP) वास्तव में लोक व्यवहार या स्थानीय वातावरण के हिसाब से विकास पर जोर देना ही है I हिमालय क्षेत्र में बादल फटने या ग्लेसियर खिसकने की घटनाएँ सदियों से होती रही हैं और उत्तराखंड सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र रहा है I उत्तराखंड के प्राचीन वासिंदो ने दैव प्रकोप को समझकर अपने को ढाला और उसके लिए कथन बनाये जिससे कि वह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी सरकता रहे I किन्तु आज खासकर उत्तराखंड प्रशासन -शासन के पास रिकौर्ड होने के वावजूद अपनी गलतियों को दोहराता जा रहा है I
मानव कल्याण की जगह लोभ केन्द्रित विकास, लाभ की जगह हानिकारक सिद्ध हो रहा है I आज आवश्यकता है कि मध्य हिमालय की वास्तविकता को समझा जाय , लोक विश्वास व लोक व्यवहार को समझा जाय और फिर विकास योजनायें बनाई जायं I आयातित विकास मॉडल की जगह स्थानीय भौगोल पर फिट बैठने वाली योजनाओं पर ही काम हो तो इस तरह के मनुष्य जनित आपदाओं को रोका जा सकता है I ग्रौस इनवाइरेनमेंट प्रोडक्ट लक्षित विकास में समाज की भागीदारी अधिक मान्य होती है और इसके लिए सामाजिक जागरूकता उतना ही आवश्यक जितना कि विकास लक्ष्य रखा जाना I विकास माध्यमों पर लक्ष्य से अधिक ध्यान दिया जाना आज एक आवश्यकता है I पहाड़ों के विकास में पहाड़ी संस्कृति, पहाड़ी लोक साहित्य , स्थानीय लोक साहित्य, स्थानीय लोक कथ्यों , कथनों को याद रखना विकास से भी अधिक आवश्यक है।
उत्तराखंड में तो मुख्य मंत्री ही आयतित हैं तो लोक व्यवहार को समझने वाले कहाँ से पैदा होंगे या लोक व्यवहार को महत्व देने वालों की कहां से चलेगी ?
उत्तराखंड में ब्रिटिश काल से सरकारी स्तर पर शिक्षा हुई और यहाँ से लोक व्यवहार, लोक ज्ञान पर शिक्षा की कुल्हाड़ी चलनी भी शुरू हुयी I एक उदाहरण है कि पहाड़ों में लोक कथा और लोक कथन है 'सरगा दिदा पाणी पाणी' I इस कथन में पानी की महत्ता अपने आप झलकती है और जल सरक्षण पर जोर दिया गया है I किन्तु अब अंग्रेजी की किताबों में बच्चों को 'रेन रेन गो अवे' कविता रटाया जाता है जो लोक अपेक्षाओं व लोक आवश्कता के सर्वथा विरुद्ध है I याने कि पहाड़ों में शिक्षा भी उत्तराखंड के पहाड़ों के चरित्र अनुसार नही हैI जब शिक्षा में स्थानीयता लुप्त हो तो वह शिक्षा स्थानीय विकास को बढ़ाने में कारगर साबित होगी ही नही अपितु कई अन्य विनाशकारी माध्यमों को जन्म देगी I
उत्तराखंड में शहरीकरण बहुत तेजी से हो रहा है और शहरीकरण योजना अनुसार नही हो रहा है अपितु आनन -फानन रीति से हो रहा है I फलत: पहाड़ी स्थान जो जनसंख्या व विकास के साधनों /माध्यमो के भार को सहन नही कर सकते वे पहाड़ उजड़ रहे हैं और विनास को न्योता दे रहे हैं I कोई भी लक्ष्य पाने के लिए माध्यम सही होने चाहिए और साधन , माध्यम या पथ की पवित्रता लक्ष्य से अधिक महत्वपूर्ण होती है I किन्तु उत्तराखंड में विकास के माध्यम तो मध्य हिमालयी पर्यावरण के विरुद्ध हैं तो यह विनास लीला अवश्यम्भावी ही थी I पहाड़ तोड़ने के लिए बम प्रयोग होंगे तो उजड़ -विजड होंगे ही I यदि स्थानीय पर्यावरण के अनुसार विकास न किया जाय तो विकास विनास को ही जन्म देगा I
आजकल हिमालयी विकास को आंकने का मापदंड ग्रौस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (GDP ) के स्थान पर ग्रौस इनवाइरेनमेंट प्रोडक्ट इंडेक्स (GEP) की वकालात जोर मार रही है और हिमालय सरोकार के विद्वान डा अनिल जोशी का कहना है हिमालय में केवल ग्रौस इनवाइरेनमेंट प्रोडक्ट इंडेक्स ही मान्य माना जाना चाहिए I ग्रौस इनवाइरेनमेंट प्रोडक्ट या (GEP) वास्तव में लोक व्यवहार या स्थानीय वातावरण के हिसाब से विकास पर जोर देना ही है I हिमालय क्षेत्र में बादल फटने या ग्लेसियर खिसकने की घटनाएँ सदियों से होती रही हैं और उत्तराखंड सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र रहा है I उत्तराखंड के प्राचीन वासिंदो ने दैव प्रकोप को समझकर अपने को ढाला और उसके लिए कथन बनाये जिससे कि वह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी सरकता रहे I किन्तु आज खासकर उत्तराखंड प्रशासन -शासन के पास रिकौर्ड होने के वावजूद अपनी गलतियों को दोहराता जा रहा है I
मानव कल्याण की जगह लोभ केन्द्रित विकास, लाभ की जगह हानिकारक सिद्ध हो रहा है I आज आवश्यकता है कि मध्य हिमालय की वास्तविकता को समझा जाय , लोक विश्वास व लोक व्यवहार को समझा जाय और फिर विकास योजनायें बनाई जायं I आयातित विकास मॉडल की जगह स्थानीय भौगोल पर फिट बैठने वाली योजनाओं पर ही काम हो तो इस तरह के मनुष्य जनित आपदाओं को रोका जा सकता है I ग्रौस इनवाइरेनमेंट प्रोडक्ट लक्षित विकास में समाज की भागीदारी अधिक मान्य होती है और इसके लिए सामाजिक जागरूकता उतना ही आवश्यक जितना कि विकास लक्ष्य रखा जाना I विकास माध्यमों पर लक्ष्य से अधिक ध्यान दिया जाना आज एक आवश्यकता है I पहाड़ों के विकास में पहाड़ी संस्कृति, पहाड़ी लोक साहित्य , स्थानीय लोक साहित्य, स्थानीय लोक कथ्यों , कथनों को याद रखना विकास से भी अधिक आवश्यक है।