शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (492) गतांक से आगे......

भगवान् शिव का गंगावतरण तीर्थ में तपस्या के लिए आना, हिमवान द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार उनका उस स्थान पर दूसरों को न जाने देने की व्यवस्था करना

दूसरों का उपकार करने वाले तथा सम्पूर्ण पर्वतों के सामथ्र्यशाली राजा हो। गिरिराज! मैं यहां गंगावतरण स्थल में तुम्हारे आश्रित होकर आत्मसंयमपूर्वक बड़ी प्रसन्नता  के साथ तपस्या करूंगा। शैलराज! गिरिश्रेष्ठ! जिस साधन से यहां मेरी तपस्या बिना किसी विध्न-बाधा के चालू रह सके, उसे इस समय प्रयत्नपूर्वक करो। पर्वतप्रवर! मेरी यही सबसे बड़ी सेवा है। तुम अपने घर जाओ और मैंने जो कुछ कहा है, उसका उत्तम प्रीति से यत्नपूर्वक प्रबन्ध करो।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! ऐसा कहकर सृष्टिकर्ता जगदीश्वर भगवान् शम्भु चुप हो गये। उस समय गिरिराज ने शम्भु से प्रेमपूर्वक यह बात कही-जगन्नाथ! परमेश्वर! आज मैंने अपने प्रदेश में स्थित हुए आपका स्वागतपूर्वक पूजन किया है, यही मेरे लिए महान् सौभाग्य की बात है। अब आपसे और क्या प्रार्थना करूं। महेश्वर! कितने ही देवता बड़े-बड़े यत्न का आश्रय ले महान् तप करके भी आपको नहीं पाते। वे ही आप यहां स्वयं उपस्थित हो  गये। मुझसे बढ़कर श्रेष्ठ सौभाग्यशाली और पुण्यात्मा दूसरा कोई नहीं है, क्योंकि आप मेरे पृष्ठभाग पर तपस्या के लिए उपस्थित हुए हैं। परमेश्वर! आज मैं अपने को देवराज इन्द्र से भी अधिक भाग्यवान् मानता हूं।              (शेष आगामी अंक में)

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