काश! मैं किसी विश्वविद्यालय का कुलपति होता (व्यंग्य)

डॉ. शैलेश शुक्ला, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र। 
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो मैं सिर्फ शैक्षणिक संचालक नहीं, परिवार+पर्सनल+पब्लिक नेटवर्क मैनेजर बन जाता। सुबह देवस्थान की तरह रिफ्रेशमेंट मीटिंग होती, लेकिन दफ्तर की कुर्सी पर केवल रूलबुक नहीं, रोल्डकुक बुक खुलती—‘वित्त-फंक्शन-अन्नपूर्णा व्यवस्था’ की, जिसमें बजट से ज्यादा भेजे गए पोषक मायने रखते। कुलपति का दरबार, ‘सरकारी मुहर’ नहीं, मुश्त-डेढ़-पुण्य देता—नेतृत्व समझो, नो-कंप्लेंट नोड। विश्वविद्यालय की गेट घण्टियाँ सिर्फ विश्वविद्यालय नहीं आमंत्रित करती—बल्कि मेरे *हेडक्वार्टर की मेज तक बातें खींचती हैं। शुभारम्भ मीटिंगों में “योजना-परिणाम” नहीं, “गिफ्ट-कनेक्शन” प्राथमिक होते; और ये कनेक्शन “सीनियर अफसर+मंत्री+डीईआईसी” तक पहुंचता, जहाँ अधिग्रहण-योग्यता से अधिक संबंध-शक्ति मायने रखती। और मैं? मैं कुर्सी पर बैठकर केवल दिन गुजारता नहीं, рисम्प्लायर (रिक्वायर+सिम्प्लीफायर) बनकर लेता—पावर बटुआ, प्रतिष्ठा थैले, और संविदा सुरक्षा ढाल। मैं सोचता—काश मैं किसी विश्वविद्यालय का कुलपति होता!
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो नौकरी नहीं, निजी प्रायोजन राशन चलाता।
संस्थान में पदों की अधिसूचना नहीं, अधि-गोपनीय प्रक्रिया होती। कौन-पसंद-है, पहले सूचना उसकी राह होती। योग्यता से नहीं, गिफ्ट-स्कीम-योग्यता से वोट मिलती। "हर आवश्यकता ट्रेंडेड", "हर पद पर्सनलाइज्ड" :– शिक्षक नियुक्ति = ‘डिज़ाइन-ऑन-डिमांड’ – शोध सहायता = ‘रिश्वत कंसल्टेंसी’– क्लास–टेक्नोलॉजी = ‘केबल-अरेंजमेंट-PR पैकेज' चयन समिति='डिस्काउंटेड ग्रांड-कैब्स', जिसमें गिफ्ट बॉक्स-रिमोट-मेड इन्फ्लुएंसर्स पहले से तैयार रहते। और प्रतिभाशाली उम्मीदवार? केवल ‘जो रिश्तेदारी की राह जानते’—या जो “रीवॉर्डेड-रिलेशनशिप Implementer” माने जाते। और मैं – नियताधिकारी नहीं, नेतृत्त्व नियामक बनकर सोचता—काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता!
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो मैं सुविधाएं नहीं, फरमान–रूप–रिश्वत–दौर चलाता।
कैंटीन में मुफ्त नहीं, फंड–मल्टीप्लायर सिस्टम चलता : – क्यूआर कोड लगा, खुद खाना छूट लिया, – सेवाएँ दी, विश्वविद्यालय बिल भेजा, – बचा पैसा मालीखा खा गई—तो “मैत्री–मैनेजमेंट रिवर्स” कैंपस में वाई-फाई नहीं, वित्तधारा संकल्प नेटवर्क होता—जहां कनेक्शन की गारंटी, पर डाटा नहीं, Dues पूरा करते जाते। ऑफिस में काम नहीं, कॉन्फिडेंट केबिन–कार्यक्रम चलता। मीटिंग एजनडा नहीं, ‘चीयर-मी-डाउन-राइट’ की अगली टिकट।और मैं? मैं फ़ायनेंस–फ़्लावर-स्टोवर बनकर पंख फड़पड़ाता—काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता!
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो इन्स्पेक्टर नहीं, इमोशनल इन्फ्लुएंसर बनता।
दूरदर्शी समिति आए—तो पहले गेट-पर 'कॉफ़ी+कन्वीन’ सेक्शन होता। इंस्पेक्टर बोले—“कहाँ researches?” तो जवाब होता—“कल विवेकानंद संसाधन केंद्र में होगा प्रोमोशन–ट्रायम्फ।”
दर्षन नहीं, Digital Show-डेमैंडमेंट होती। और पैनल रिपोर्ट नहीं, पर्सनल–वीडियो-सपोर्ट' होती।
जब प्रबोधन-यात्रा के निरीक्षक अगर विवाद खींचना चाहे—तो उन्हें वेलकम-पैकेज में ‘शांति सभा डिनर’ भेजा जाता, जिसमें ‘विंड-डाउन रिकॉर्डिंग–शिबिर’ अटैच रहता। और मैं? मैं विश्वविद्यालय विनम्रकर्ता नहीं, इन्फ्लुएंसर कलेक्टर बन कर गर्व से सोचता—काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता!
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो शोध नहीं, शो–रिलेशन–शो–फाइनेंस योजना चलाई जाती। अनुसंधान प्रस्ताव तैयार नहीं, ‘फंड–फालोफोर्स’ तैयार की जाती। ‘स्वच्छता अभियान’ नहीं, ‘Standards Release Show’. जेनेरिक क्लास रूम क्वालिटी नहीं, “Q2 क्वालिफिकेशन क्वाज़” आती। कागज़-दस्तावेजों का नाम नहीं, “Custodian + Curbosure Documents” बनता। अंत में, विश्वविद्यालय नई डिग्री नहीं देता, “Diploma in Disguise of Development” अफ़सरों को पकड़ती। और मैं? मैं शोध नहीं, शेखी–शोध–सत्यापन उदाहरण बना देता—काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता!
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो मैं यज्ञ नहीं, योज़ना–शेयर–यादगार करता।
'सत्र-आरंभ','दीक्षान्त समारोह','गुरु प्रशंसा','राष्ट्र गान'—सब अनुपातवत्ता से करते। लेकिन पीछे करता—‘डिनर–डायलॉग–डिस्ट्रिब्यूशन' उपहार नहीं, ‘यूज़र–यूनिटी–यूटिलिज़ेशन' पुस्तक बांटता। स्मृति चिह्न नहीं, ‘संरक्षक-खर्च–सर्टिफिकेट' ठहरा देता। सुनो—समारोह सुंदर, प्रेजेंटेशन विश्वसनीय, लेकिन विश्वविद्यालय के बैंक बैलेंस में प्रशासन की क्रिया वृद्धि दिखाई देती।
और मैं? मैं समारोह नहीं, सिग्नेचर–शाइन–स्माइल मांगता—काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता!
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो शासन नहीं, गवर्नेंस–गिफ्ट लेता। कानून नहीं, कॉन्ट्रैक्शन–क्रांति लाता। RTI नहीं, Return on Influence करता। CAG/Audit नहीं, Appreciation–Audit करवाता। शासन नहीं, गवर्नेंस–गेटवे बनाता जहाँ हर फेड-बोर्ड, मंत्री-चेंटरी संरक्षक शिरकत करें। और मैं? मैं नियंत्रण नहीं, निरंतर–नेटवर्क बनाता—काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता!
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो मैं सिर्फ शैक्षणिक पदाधिकारी नहीं, बल्कि ‘पदोन्नति-पर्सनलाइजेशन प्रभारी’ बन जाता। पदोन्नति केवल परमाणु नहीं, बल्कि पारिवारिक जंक्शन बन जाती—जो जीवनी में अधिक नहीं, बल्कि तीव्रता में अधिक योग्यता होती है। मैं जब हेड ऑफ डिपार्टमेंट को प्रमोट करूंगा, तो उसमें केवल यूनिवर्सिटी के निर्णय क्यों? उसकी पोशाक, पोस्टर, और प्यूपिल संचार क्षमता भी मायने रखेगी। फिर कौन टीचिंग करेगा, कौन टैलेन्टेड ट्रेंड फैक्ट्री में प्रयोगशाला करेगा—यह बाद में तय होगा। और जब कोई ओल्ड फैकल्टी ‘गुरु’ की तरह पीछे खड़ा होगा और कहेगा—“सर, क्या यह उचित है?”, तो मैं मुस्कुरा कर जवाब दूंगा—“यह वही सही है जो राजनीति का हिस्सा–NOTIFICATION की वजह से आता है।” और फिर उस ‘गुरु’ को किसी काउंसल सेंटर या लिंकडइन ट्रांसिशन ट्रेनिंग के लिए भेज दिया जाएगा—ताकि वह विश्वविद्यालय नीति समझने लगे, लेकिन उसमें ‘अस्थिरता’ न पैदा हो। मैं विश्वविद्यालय का मुख्य प्रवक्ता नहीं, ग्लैमर-ग्रैडेशन–गॉवर्नेंस–गाईड बन जाऊँगा—जिसका काम केवल प्रबंधन नहीं, जन-संपर्क+पावर+पारिवारिक उपयोग परोसना होगा। मैं सोचना शुरू कर दूँगा—‘प्रेस रिलीज़, सोशियल मीडिया, सेल्फी कॉर्नर, PR-स्कीम इंटीग्रेटेड वेलनेस‘—सभी “कुलपति के यूनिफाइड विज़न” को दर्शाएँगे। बाहरी लोग भ्रमित होंगे—“यह शैक्षणिक संस्था नहीं, बल्कि एक पपेट-राजनीतिक चैनल लगती है।” और मैं खुद को देखता रहूँगा—काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता!
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो मैं नूर का नूर नहीं, सिर्फ पोस्टर का प्रकाश भरता। हर समारोह में मेरी तस्वीर पूजनीय होती, लेकिन तस्वीर के पीछे भीतर सेल्स-टैक्स–रात्रि–तकनीकी–ट्रांज़ैक्शन मीटर चलता। कुलीनोत्तर मीटिंग्स नहीं, कुलपति-पर्सनल–पाउडरирования की व्यवस्था होगी—जहाँ खानापूर्ति नहीं, खुदकुशी की चीज़ नहीं, खुद-ब-धूप–वित्तीय्र व्यक्तित्व ही संपन्न होता है। वित्तीय वर्ष शुरू होते ही मैं ‘महत्वपूर्ण योजनाएं’ बनाऊँगा, जिनका वास्तविक लाभ केवल मुझे होगा—न कि विश्वविद्यालय, न छात्र, न शोधकर्ता। और जब रिपोर्टिंग और ऑडिट करने वालों को पता चलेगा, तो उन्हें बुलाकर सरल ही कह दूँगा—“हमने हर जाँच पारदर्शी रखी, केवल हिसाब-किताब आपके लिए खुला रखा।” लेकिन स्वयं June में AGM में जब मैं पहला स्लाइड खोलूंगा—जिसमें बजट बढ़ा होगा, लेकिन संसाधन घटे होंगे, निधि नहीं, केवल "बलिदान" वो इमोशन दिया होगा,—तब विश्वविद्यालय का नाम चमकता रहेगा, लेकिन मेरे पीछे का असली रोशनी+रिश्वत+रूपया अँधेरे में सुरक्षित होगा। और मैं फिर सोचूँगा—काश हूँ मैं विश्वविद्यालय का कुलपति!
काश मैं किसी विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो सबसे पहले मैं विश्वविद्यालय की जमीन को "शैक्षणिक उपयोग" की आड़ में "वाणिज्यिक सौदों" में बदल देता। एक कोने में पार्क बनाने का प्रस्ताव पास कराता, फिर वहाँ एक प्राइवेट कैफेटेरिया खुलवा देता—वो भी अपने भतीजे के नाम से। वहीं हॉस्टल के पुराने ब्लॉक को "डेंजरस स्ट्रक्चर" घोषित करवा कर ढहा देता, ताकि कोई बिल्डर मित्र वहाँ नए भवन निर्माण की योजना में मुझे "साझेदार" बना सके। और नए भवन का नाम होता – “स्वर्णिम दृष्टि छात्रावास” – जिसमें स्वर्ण तो केवल टाइल्स की ऊपरी परत में होता, पर मलाई भीतर मेरे बैंक खाते में।
जैसे ही किसी विश्वविद्यालय की दीवार ऊँची होती है, कुलपति का जाल भी उतना ही चौड़ा बनता है। मैं ठेकेदारी, सप्लाई और आउटसोर्सिंग को “ब्यूरोक्रेटिक लॉजिस्टिक्स” का नाम देता और हर छोटे बड़े काम को निजी एजेंसी को सौंप देता—उस एजेंसी को, जो मेरे किसी नजदीकी रिटायर्ड प्रोफेसर के बेटे के नाम पर रजिस्टर्ड हो। चाहे पुस्तकें हों, फर्नीचर हो या कैंटीन का समान—हर भुगतान से पहले मेरी जेब का “इंट्रोडक्टरी कमीशन” निर्धारित होता। हर आर्डर पास होने से पहले उसका "आशीर्वाद" मुझसे लेना अनिवार्य होता—वरना फाइलें “लाइब्रेरी के गुमनाम रैक” में सोती रहतीं। और रही बात विश्वविद्यालय के पब्लिक रिलेशन सेक्शन की—तो उसे मैं अपनी छवि निर्माण संस्था बना देता। हर छोटी-बड़ी उपलब्धि की प्रेस रिलीज़ में मेरा नाम चमचमाता, और छात्रों की मेधा पीछे छिप जाती। न्यूज़ चैनलों पर मेरे इंटरव्यू चलवाने के लिए विश्वविद्यालय के फंड से “PR कंसल्टेंसी” हायर की जाती, जो मुझे महान दार्शनिक, शिक्षाविद और आध्यात्मिक नेता तक घोषित कर देती। मैं कैमरे के सामने मुस्कुराता और भीतर सोचता—काश ये कैमरा मेरे "असली कामों" को कभी न देख पाए।
काश मैं किसी विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो शोध की परिभाषा बदल देता। विश्वविद्यालय में पीएचडी की गाइडलाइन की तरह ‘रिसर्च’ को भी एक मुनाफे का धंधा बना देता। गाइड बनने के लिए फैकल्टी को मेरी कृपा की आवश्यकता होती और गाइड बनने के बाद उन्हें पता चलता कि “गाइडेंस” देना नहीं, “गिफ्ट्स” लेना ज्यादा महत्वपूर्ण है। एक गाइड अगर मेरे लिए 10 स्कॉलर लाए, तो उसका प्रमोशन सुनिश्चित; और जो ईमानदारी से काम करे, उसे केवल विभागीय गुमनामी मिलती। और ये रिसर्च स्कॉलर, जिन्हें उच्च शिक्षा का सपना लेकर आते हैं, उनके विषय चयन से लेकर उनकी थीसिस की भाषा तक सबकुछ तय करता—मेरा कार्यालय, मेरी नीति और मेरा नेटवर्क। थीसिस का प्रिंटिंग, बाइंडिंग और जमा करने तक की प्रक्रिया में दस जगह "दक्षिणा" दी जाती—कभी टाइपिंग स्टाफ को, कभी ‘रिसर्च कोऑर्डिनेटर’ को, और अंत में 'डिग्री जारी कराने' वाले लिपिक को भी एक मिठाई का डिब्बा भेंट स्वरूप देना होता, जिसमें अक्सर “मिठास के साथ कुछ और” होता।
अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों के आयोजन भी मेरे लिए “इंटरनेशनल अर्निंग ऑपर्च्युनिटी” बन जाते। जहाँ विद्वान अतिथि विदेश से आते, उनके आने-जाने की व्यवस्था से पहले उनका “उपहार सूचि” तैयार होती। कुछ को पेंटर घड़ी चाहिए होती, तो कुछ को आयुर्वेदिक च्यवनप्राश—क्योंकि वो “स्वस्थ भारत मिशन” के ब्रांड एंबेसडर होते। और अगर बजट कम पड़ता, तो मैं “यूनिवर्सिटी इनोवेशन फंड” से पैसा खिसकवा लेता, और कहता—“विदेशी अतिथि हमारी ब्रांड वैल्यू बढ़ाते हैं, बजट बाद में मैनेज हो जाएगा।” इस प्रकार विश्वविद्यालय की शैक्षणिक गतिविधियाँ मेरी व्यक्तिगत "वित्तीय गतिविधियों" में बदल जातीं—और मैं हर रिसर्च पेपर के बीच एक अदृश्य लाइन जोड़ देता—"फंडेड बाय कुलपति का चातुर्य"। सोचता हूँ, कितना मज़ा आता—काश मैं किसी विश्वविद्यालय का कुलपति होता!
काश मैं किसी विश्वविद्यालय का कुलपति होता—तो अंततः मैं विश्वविद्यालय नहीं, एक 'विशेषाधिकारीय गणराज्य' का निर्वाचित सम्राट होता। मेरे सामने ‘ज्ञान’, ‘शिक्षा’, ‘अनुसंधान’ जैसे शब्द धूप में पड़े पुराने बैनर की तरह रंगहीन होते, और ‘प्रोजेक्ट’, ‘पैकेज’, ‘पब्लिसिटी’ और ‘प्रोटोकॉल’—ये मेरी सत्ता के असली चार स्तंभ होते। मेरे हस्ताक्षर का अर्थ ‘अनुमोदन’ नहीं, ‘अनुबंध’ होता; और मेरी मुस्कान किसी ‘शैक्षिक दर्शन’ की नहीं, ‘ब्याज सहित वापसी गारंटी’ की गवाही देती। विश्वविद्यालय की दीवारों पर लटकी मेरी तस्वीरें, उतनी ही स्थायी होतीं जितनी छात्रों के प्रमाणपत्रों पर छपी मेरी मुहरें—जो ज्ञान नहीं, जुगाड़ का प्रतीक होतीं। और तब—जब किसी विद्यार्थी का सपना टूटता, किसी शिक्षक का सिद्धांत बिखरता, किसी शोधकर्ता का आत्मसम्मान सिसकता—तो मैं अपनी वातानुकूलित कुर्सी पर बैठकर यही सोचता : "ज्ञान आता-जाता है, लेकिन नेटवर्क स्थायी होता है। सत्य अस्थायी हो सकता है, लेकिन स्वीकृति और सम्मान — सदस्यता शुल्क से ही टिकता है। और अगर इतिहास कभी पूछे कि विश्वविद्यालय में 'शिक्षा' का क्या हुआ—तो मैं गर्व से कहूँ, - ‘वो भी हमारे कार्यकाल में आउटसोर्स कर दी गई थी। 
काश मैं विश्वविद्यालय का कुलपति होता…लेकिन अफ़सोस, मैं केवल एक आम शिक्षक हूँ—जो अभी भी यह मानता है कि ज्ञान बिकता नहीं, बोया जाता है। और विश्वविद्यालय—व्यवसाय नहीं, विचार होता है। अब आप ही बताइए—क्या इस सोच वाले को आजकल कोई कुलपति बनाता है?
लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह आशियाना (लखनऊ) उत्तर प्रदेश

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